कैसी होगी उसकी होली
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कैसी होगी उसकी होली

होली सेलेब्रेशन्स कैसी होगी एक औरत की होली

कैसी होगी उसकी होली

इतने दिनों के इंतज़ार के बाद होली का त्योहार भी आख़िर आ ही पहुंचा। ऐसे में क्या बच्चे, क्या बड़े, सभी की कितनी-कुछ तो प्लानिंग होगी इस दिन को लेकर कि करना क्या-क्या है। हालांकि जमकर होली खेलने के शौकीन लोगों को कोरोना के चलते कुछ निराशा हो सकती है, क्योंकि कुछ तो सरकारी गाइडलाइंस का असर है, कुछ खुद ही लोग सतर्कता बरत रहे हैं। सो होली जमके न खेली जाए, सिर्फ़ थोड़ा सा रंग-गुलाल लगाकर ही काम चला लिया जाए। साथ ही डांस तो सोशल डिस्टेंसिंग के साथ भी हो सकता है तो थोड़ी कसर इस तरह से भी पूरी की जा सकती है। आख़िर साल भर का त्योहार है, सूखा-सूखा क्यों बिताया जाए। 

फिर सबसे बड़ी बात कि त्योहार और उस पर भी होली जैसा त्योहार तो खाना-पीना तो जमकर ही बनता है न और खाने में क्या-क्या हो, इसकी भी एक अच्छी-ख़ासी फेहरिस्त तैयार होगी घर में छोटे-बड़े सभी की। गुजिया, नमकपारे, शक्करपारे, मट्ठी, दहीभल्ले, आलू टिक्की और साथ में जब तक ठंडी-ठंडी ठंडाई न हो, मज़ा कुछ अधूरा सा ही लगता है। उस पर सोने पर सुहागा ये कि ये सभी चीज़ें बाज़ार से न मंगाकर घर पर ही तैयार की गई हों तो कहने ही क्या! वैसे ये अलग से कहने कि भी क्या ज़रूरत है। हमारे परिवार की महिलाएं तो ख़ुद ही ऐसी होती हैं कि अपना प्यार भी खिलाकर ही जताती हैं और अपनी हुनरमंदी भी पकाकर। त्योहार पर भी या तो वे सिर्फ़ पूजा के समय अपने किचेन से बाहर आती हैं या फिर थोड़ी-बहुत होली खेलकर दोबारा किचेन में ही घुस जाती हैं। कितने ही घर ऐसे होंगे, जहां का एक आम नज़ारा ये होगा कि बाकी का परिवार तो बाहर आंगन में होली मना रहा होगा और किचेन से आ रही होगी सौंधी-सौंधी खुशबू, क्योंकि किचेन में तरह-तरह की डिशेस बनाने में जुटी होंगी घर की महिलाएं। शायद इसीलिए हम सभी की ज़बान पर एक न एक ज़ायका ऐसा ज़रूर होता है, जो सिर्फ़ अपने घर के किचेन से जुड़ा होता है। किचेन, यानी वह जगह, जहां आमतौर पर भारतीय महिलाओं का सबसे ज़्यादा समय बीतता है। किसी का थोड़ा कम तो किसी का थोड़ा ज़्यादा, लेकिन ये लगभग घोषित सा है कि ये जगह महिलाओं का ही कर्मक्षेत्र है हर घर में, जिसे लॉकडाउन भी लॉक नहीं कर पाया था। 

यहां सवाल ये उठता है कि क्या तीज-त्योहार या छुट्टी सिर्फ़ परिवार के बाकी सदस्यों की ही होते हैं, घर की महिलाओं की नहीं। चाय, नाश्ता, लंच, शाम की चाय, बीच-बीच में आए-गए की आवभगत के साथ-साथ परिवार के लोगों की फर्माइशों के इर्द-गिर्द घूमती उनकी दिनचर्या में कामकाजी, यानी ऑफिस वर्किंग होने से भी कोई बहुत ज़्यादा बदलाव आया हो, ऐसा लगता तो नहीं। अगर घर में रहते हुए ये तमाम चीज़ें उन्हें दिन-भर करते रहना है तो ऑफिस जाते हुए करके जाना है। छुट्टी के दिन या त्योहार के मौके पर ये रुटीन और भी बढ़ जाता है, क्योंकि घर-परिवार के लोग इसे अपना हक समझते हैं और परिवार की महिलाएं इसे अपना फ़र्ज़। हेल्प के नाम पर कुछ घरों में शायद थोड़ा-बहुत सहयोग मिल जाता हो, लेकिन इससे ज़्यादा बदलाव तो तब भी देखने को नहीं मिलता। ऐसे कितने घर होंगे, जहां किसी भी एक वक्त का खाना तो छोड़िए, चाय-नाश्ते की ही पूरी ज़िम्मेदारी घर का कोई पुरुष सदस्य संभाल लेता हो। याद करना पड़ रहा है न? सच यही है। 

अगर इस बारे में हम न केवल भारत में, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नज़र दौड़ाएं तो महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूएन वीमेन ने हाल ही में अपनी एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसे नाम दिया गया था, विश्व-भर की महिलाओं की प्रगति 2019-2020- बदलती दुनिया में परिवार। रिपोर्ट में इस सच्चाई को मोटे तौर पर उभारा गया है कि महिलाएं अपने परिवार की देखभाल और घरेलू कामकाज पुरुषों के मुकाबले तीन गुना ज़्यादा करती हैं, जिसका उन्हें कोई मेहनताना तक नहीं मिलता है और कई बार तो कोई क्रेडिट तक भी नहीं। ऐसा मान लिया जाता है कि परिवार का ख़्याल रखना, घरेलू कामकाज करना तो उन्हीं की ज़िम्मेदारी है और यही एक छोटी सी बात शुरुआत से ही एक बड़ी वजह बन जाती है, स्त्री-पुरुष असमानता की। 
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि बेशक कामकाजी दुनिया में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, लेकिन साथ ही इससे उनकी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों में बहुत ज़्यादा बदलाव नहीं आता और शादी व मां बनने के बाद उनकी प्रोफेशनल लाइफ़ उतनी ही तेज़ी से कम भी हो जाती है। इस बात पर हैरानी शायद ही किसी को हो कि इसी रिपोर्ट में ये बात भी कही गई है कि दुनिया के लगभग 19 देश ऐसे हैं, जहां महिलाओं को अपने पति का आदेश मानने की कानूनी बाध्यता होती है। लगभग हर पांच में से एक देश ऐसा है, जहां लड़कियों को लड़कों के समान संपत्ति और विरासत के अधिकार नहीं मिलते। 

इस समिति की निदेशक का यहां तक कहना है कि दुनिया भर में हम महिलाओं के वजूद, अधिकारों और निर्णय लेने की उनकी क्षमता को नकारने का चलन देख रहे हैं और ये सब परिवारों की संस्कृति और मूल्यों को बचाने के नाम पर किया जाता है।

हां, वैसे रिपोर्ट की सबसे अहम और अच्छी बात एक उम्मीद की तरह लगती है कि परिवार ही वह जगह है, जहां समानता और न्याय की नींव पड़ सकती है। अगर हर परिवार छोटी लगने वाली बातों से ही अपने परिवार में बेटी-बेटे में बराबरी समझे तो मौका चाहे त्योहार का हो या ज़िंदगी का कोई आम दिन, सभी साथ मिलकर मनाएंगे। तब ऐसा नहीं होगा कि एक की होली बाहर आंगन में मन रही हो और दूसरे की सिर्फ़ किचेन में। बड़े बदलाव की नींव होते तो छोटे-छोटे कदम ही हैं न तो क्यों न इस होली पर अपने घर की महिलाओं को सिर्फ़ थोड़ा सा रंग या गुलाल मत लगाइए, बल्कि पहले किचेन में उनके साथ लगकर हाथ बंटाइए और फिर सब मिलकर एक साथ होली मनाइए। तभी तो दिल से निकलेगा, होली है, मस्ती की ठिठोली है!