सारी दिशाओं को समेटे आसमान का नाम होता है पिता
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सारी दिशाओं को समेटे आसमान का नाम होता है पिता

दुनिया और कहीं से उतनी ऊंची नहीं लगती, जितनी एक पिता के कंधों पर बैठकर लगती है।

सारी दिशाओं को समेटे आसमान का नाम होता है पिता

आज फादर्स डे है, यानी उस शख़्स के नाम एक दिन, जिसकी पूरी ज़िंदगी ही अपने बच्चों, अपने परिवार के नाम होती है। जिसका दिल प्यार और ज़िम्मेदारियों के एहसास से सराबोर होता है। बस होता ये है कि मां की ममता तो छलकता सागर होती है, जो जब-तक ज़ाहिर होती रहती है, लेकिन पिता की मुहब्बत सागर के सीने में छिपा अनमोल मोती, जिसे वह बता-जता नहीं पाता कभी।

बहुत ही कम पिता ऐसे होते हैं, जो आसानी से अपने दिल की बात अपने बच्चों को बता पाते हैं। उन्हें तो ठीक से अपना प्यार जताना तक नहीं आता, बल्कि अगर थोड़ा और पीछे जाएं तो जहां मांएं तो बचपन में अपनी गुड़िया पर ही अपनी ममता उड़ेल-उड़ेलकर ममता का पहला सबक सीख जाती हैं, दुनिया को सिखा जाती हैं, लेकिन पिता तो जब पहली बार अपने बच्चे को अपनी गोद में लेते हैं तो उस पल उनके चेहरे के भाव ही बता देते हैं कि उन्होंने जैसे दुनिया की सबसे नाज़ुक शै को अपनी बांहों में लिया है। एक ऐसी प्यारी सी ज़िम्मेदारी, जिसे पूरी ज़िंदगी वे हंसी-ख़ुशी निभाते हैं। दुनिया और कहीं से उतनी ऊंची नहीं लगती, जितनी एक पिता के कंधों पर बैठकर लगती है। शायद इसीलिए कहते हैं कि शौक़ तो पिता के दम पर ही पूरे होते हैं, अपने दम पर तो सिर्फ़ ज़िम्मेदारियां और ज़रूरतें निभ पाती हैं।

मैंने अपने पिता के साथ बहुत कम वक़्त बिताया है, लेकिन उनके साथ बिताए वक़्त का हर पल हज़ारो-हज़ार यादों से भरपूर है, ज़िंदगी से भरपूर है। मैं जब बहुत छोटी थी, तभी मेरे पिता का देहांत हो गया था। यहां तक कि उनकी मौत पर मैं बहुत ज़्यादा रोई भी नहीं थी, क्योंकि तब उस पल में मुझे एहसास ही नहीं था कि मुझसे क्या हमेशा के लिए दूर जा रहा है। मेरे सिर से वह छत्त हट रही है, जिसने मुझे अब तक वक़्तो-हालात की हर धूप-बारिश से बचाए रखा था। जिसके रहते बाज़ार के हर मनचाहे खिलौने पर मेरा नाम लिखा होता था, जो मेरे लिए सैंटा क्लॉज़ की तरह मेरी हर ख़्वाहिश पूरी कर सकता था, जिसके रहते मुझे कभी भी भगवान से प्रार्थना करने की ज़रूरत ही नहीं थी, क्योंकि तब मुझे पता ही नहीं था कि ज़रूरत कहते किसे हैं। मेरी तो बस इच्छाएं ही हुआ करती थीं, जिसे पूरा करने के लिए मेरे पास दुनिया के सबसे अच्छे, सबसे प्यारे और सबसे ‘पावरफुल’ पिता थे। 

हमारे परिवार की मध्यवर्गीय स्थिति कभी मेरे पिता के लिए उस रास्ते में आई ही नहीं, जो मेरी ख़्वाहिश को पूरा करने की तरफ़ जाता था, लेकिन ये सारे एहसास अब उमड़ते हैं। समंदर में हर रोज़ एक के बाद एक उमड़ने वाली लहरों की तरह जाने कितनी ही यादें आए दिन दिलो-ज़ेहन में आती रहती हैं। आज मुझे लगता है कि अपने पिता की आंखें बंद होने पर जो आंसू नहीं बहे थे, वे हमेशा-हमेशा के लिए मेरी आंखों में नमी बनकर सहेजे जा चुके हैं।

हर बार जब ज़िंदगी की किसी चुनौती का सामना करने में दिक्कत आती है, जब रास्ते खो जाते हैं, जब डर लगता है, जब अकेलापन घेरता है, जब खोई हुई नींद माथे पर किसी का स्नेहिल स्पर्श मांगती है, जब बाज़ार की सारी चीज़ें लुभाना बंद कर देती हैं, जब बहुत जी चाहता है कि किसी ख़ुशी या कामयाबी के मौके पर कोई मुस्कुरा कर ख़ामोशी से सिर पर हाथ रख दे, जब गुस्से में बिना कुछ खाए ही सोने का नाटक नींद पर भारी पड़ जाता है, तब-तब पिता याद आते हैं, हर बार बेहद शिद्दत से याद आते हैं।

मेरे पिता एक आम से शख़्स थे, लेकिन उनकी सोच कितनी ख़ास थी, ये बताने के लिए मेरे पास इतना कुछ है कि उन एहसासात के लिए शब्द कम पड़ जाएंगे, लेकिन यहां मैं उनकी सिर्फ़ एक ही याद साझा कर रही हूं। 

हर पिता चाहता है कि उसके बच्चे ख़ूब पढ़ें-लिखें, ज़िंदगी में ख़ूब तरक्की करें, उनका हर सपना पूरा हो। शायद इसीलिए अनुशासन को भी पिता से ही जोड़कर ज़्यादा देखा जाता है। मांओं के पास तो जैसे ये बात कोई ‘हव्वा’ की तरह होती है कि पढ़ लो, नहीं तो पापा को बता दूंगी। खाना समय से खा लो, नहीं तो पापा को बता दूंगी। दूध पूरा फिनिश करो, नहीं तो पापा को बता दूंगी। वग़ैरह-वग़ैरह। लेकिन मेरे लिए मेरे पापा, जिन्हें मैं ‘बाबूजी’ कहकर पुकारती थी, कोई ‘हव्वा’ नहीं, बल्कि मेरा हौसला थे, मेरी हिम्मत थे।

मुझे पढ़ने का शुरू से ही बहुत शौक था। शायद शौक से कुछ ज़्यादा ही, क्योंकि मेरे अंदर की उत्सुकता मुझे किताबों के स्तर का निर्धारण करना नहीं सिखाती थी। कुछ किताबें एक उम्र के बाद ही समझ आ सकती हैं, ये बात मेरी नन्ही सी उम्र भी मानने को तैयार ही नहीं होती थी, बल्कि सच कहूं तो मुझे किताबों पर पाबंदी ही बचकानी लगती थी। मुझे लगता था कि हर किताब कुछ सिखाने-बताने के लिए ही होती है। किताबों में तो सब-कुछ अच्छा ही होता है। सो मैं कोई किताब देखते ही लपक पड़ती थी।

तब हमारे स्कूल के ठीक सामने किताबों की एक दुकान हुआ करती थी। वे किताबें बेचने के साथ-साथ पढ़ने के लिए किराये पर भी दिया करते थे। सभी तरह की किताबें हुआ करती थीं उनके पास। स्कूल के पाठ्यक्रम की किताबों से लेकर प्रेमचंद, रवींद्रनाथ टैगोर, महादेवी वर्मा वग़ैरह की उच्च साहित्यिक किताबें, चाचा चौधरी, पिंकी, नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव, चंदा मामा, लोट-पोट, नंदन, सुमन सौरभ जैसी कॉमिक्स भी और रानू, वेद प्रकाश शर्मा, समीर, गुलशन नंदा के नॉवेल भी। अब क्यों कि मुझे तो किताब महज़ किताब लगती थी तो ये फ़र्क समझ ही नहीं आता था कि मेरी उम्र अभी कुछ ही किताबें पढ़ने की इजाज़त देती है। कुछ के लिए मुझे इंतज़ार कर लेना चाहिए। 

लिहाज़ा जितनी तरह की किताबों के नाम मैंने यहां गिनाए हैं, मैं सभी तरह की किताबें अपने स्कूल डेज़ में ही पढ़ने लगी। उस दुकानदार ने भी कभी कोई किताब देने से मना नहीं किया और जब तक घर में उन्हें पढ़ते हुए कोई नहीं देख पाया तो किसी ने टोका भी नहीं था। सो प्रेमचंद के ‘दो बैलों की जोड़ी’ और महादेवी वर्मा के ‘गिल्लू’ के साथ वेद प्रकाश शर्मा का ‘वर्दी वाला गुंडा’ भी चल रहा था।

एक दिन मम्मी की नज़र ऐसे ही एक नॉवेल पर पड़ गई। उन्होंने तुरंत मेरे हाथ से वह नॉवेल छीन लिया और बुरी तरह से बरस पड़ीं कि क्या वाहियात किताबें पढ़ रही हो, पढ़ने के लिए कुछ और नहीं मिला, ये तुम्हारी उम्र है ऐसी किताबें पढ़ने की वग़ैरह-वग़ैरह। ये तान टूटी इस जुमले पर आकर कि आने दो शाम को तुम्हारे बाबूजी को, तब बताती हूं उन्हें तुम्हारी हरकत। पता नहीं, मम्मी की आवाज़ में क्या था कि मैंने वादा कर दिया कि अच्छा आगे से ऐसी किताब नहीं पढ़ूंगी। ये बाबूजी के लिए कोई डर नहीं था, बल्कि बस मम्मी की बात मान लेना भर था।

ख़ैर, उस दिन तो बात बाबूजी तक नहीं पहुंची, लेकिन कुछ दिन बाद ये भेद खुल ही गया, क्योंकि मम्मी से कीया वादा निभाने का मेरा कोई इरादा नहीं था। वह तो बस ‘गुड गर्ल’ सुनने के लिए कर दिया था। 

रानू, समीर और वेद प्रकाश के नॉवेल का तो तब तक मुझे चस्का लग गया था और कुछ ये उत्सुकता भी गहरी हो गई थी कि इन किताबों में आख़िर ऐसा है क्या, जिनकी वजह से इन्हें पढ़ने के लिए मना किया जा रहा है। अब मम्मी या किसी और के सामने तो पढ़ नहीं सकते तो मैंने उन किताबों को अपने पाठ्यक्रम की किताबों के बीच में छिपाकर पढ़ना शुरू कर दिया। कुछ दिन तो ये सिलसिला चलता रहा, लेकिन ये झूठ ज़्यादा देर चल नहीं पाया। मेरी चोरी मम्मी ने पकड़ ली और नॉवेल छीनकर ख़ामोशी से रख दिया। फिर शुरू हुआ बाबूजी के शाम को आने का इंतज़ार। मम्मी को उम्मीद थी कि ‘अनुशासन’ के लिए बाबूजी ज़रूर कोई कड़ा कदम उठाएंगे।

शाम हुई, मगर बाबूजी नहीं आए। अब तो मम्मी की बेचैनी शुरू। उस दिन फिर बाबूजी किसी ज़रूरी काम की वजह से रात को थोड़ी देर से आए। उनके आने पर मम्मी ने पानी का गिलास तो उनके सामने रख दिया, लेकिन पानी पीने तक का धैर्य उनमें बचा नहीं था। सो वह नॉवेल सामने रखने के साथ ही मम्मी ने मुझे भी खींचकर बाबूजी के सामने खड़ा कर दिया और सारी रामकहानी सुना दी। बाबूजी ने शांति से सारी बात सुनकर सिर्फ़ ‘अच्छा’ कहा और मेरे सिर पर हाथ रखकर कहा कि रात बहुत हो गई है। तुम्हें सुबह स्कूल जाना है। जाकर सो जाओ। 

मम्मी के लिए जहां ये बात गुस्से से तिलमिला देने वाली थी, मेरे लिए हैरान करने वाली। फिर भी मेरा इरादा ऐसा कतई नहीं था कि ‘आ बैल मुझे मार’। सो मैं चुपचाप बाबूजी के सामने से हट गई और अपने कमरे की तरफ़ बढ़ने लगी, लेकिन सस्पेंस तो मुझे खाए जा रहा था। जिस किताब के पढ़ने पर मम्मी का गुस्सा सातवें आसमान पर है, उसी किताब के लिए बाबूजी क्यों कुछ नहीं कह रहे? मेरे मन में जाने कितने ही सवाल उमड़ रहे थे, जिनके जवाब सुनने की इच्छा ने मुझे कमरे से बाहर निकलते ही पर्दे के पीछे छिप मम्मी और बाबूजी की बात सुनने को मजबूर कर दिया।

मेरे बाहर निकलते ही मम्मी बाबूजी पर बरस पड़ीं कि तुम्हें बच्चों के भविष्य की कोई चिंता नहीं है। बच्चे क्या बकवास पढ़ रहे हैं, तुम्हें कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता। ये उनकी कोई उम्र है ऐसी किताबें पढ़ने की। बिगड़ जाएंगे, तब क्या होगा, वग़ैरह वग़ैरह।

बाबूजी चुपचाप मम्मी का गरजना-बरसना सुनते रहे। फिर उनके तूफ़ान के रुक जाने पर बड़ी ही शांति से बोले, “मैं जानता हूं कि अभी यह छोटी है। उसकी उम्र नहीं है ऐसी किताबें पढ़ने की। यह बात भी मैं समझता हूँ। तुमने भी तो पकड़े जाने पर उसे डांटा था, मना किया था, मगर उसने क्या किया! कोर्स की किताबों में छिपाकर भी उन किताबों को पढ़ना जारी रखा। अगर मैं उसे अभी मना करता हूं तो हो सकता है कि वह मेरे-तुम्हारे सामने ये किताबें भले ही न पढ़ें, मगर कहीं और छिप-छिपाकर भी नहीं पढ़ेगी उन किताबों को, इसकी क्या गारंटी है। मैं उसे समझाऊंगा ज़रूर, मगर मैं नहीं चाहता कि वह कोई भी बात मेरी डांट-फटकार या मेरे कहने की वजह से माने। मैं चाहता हूं कि सही-ग़लत का फ़र्क वह अपने अनुभव से सीखे और तुम याद रखो, सही को पूरी तरह से समझने के लिए ग़लत को जानना भी ग़लत नहीं है, बल्कि ग़लत को जानकर ही सही को ज़्यादा मज़बूती से जाना जा सकता है। सबको अपना सही, अपने ग़लत से ही चुनना चाहिए। ग़लत की उम्र ज़्यादा लंबी नहीं होती, मगर सही उम्र भर के लिए होता है। मैं चाहता हूं कि मेरी बेटी का सच उसका अपना हो, किसी और के द्वारा थोपा हुआ नहीं।”

सच कहूं तो उस वक़्त बाबूजी की ये सारी बातें मैं समझ कितना पाई थी, ये तो मुझे नहीं पता, मगर मेरे मन में गहरे तक कुछ उतर गया था। उस छोटी उम्र में भी मैं ये सच समझ गई थी कि मेरे बाबूजी को मुझ पर अटूट विश्वास है। मुझे कुछ भी उनसे छिपाकर नहीं करना है। उसके बाद मैं हमेशा अपने बाबूजी के लिए खुली किताब बनी रही और जीते-जी उनके इस विश्वास पर मैंने कभी खरोंच भी नहीं आने दी। 

आज बाबूजी मेरे सामने नहीं हैं, मगर मेरे साथ हर पल हैं। अब तक मेरी तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, कई किताबों का संपादन और अनुवाद मैंने किया है। मेरी कई कविताएं अपनी जगह बना चुकी हैं, मगर ये सब कुछ अगर संभव हो पाया तो सिर्फ़ इसी वजह से कि मैने अपना सच ख़ुद गढ़ा है, न कि किसी दूसरों को गढ़ने दिया है। यही तो कहा था बाबूजी ने भी और कितना सच ही तो कहा था। एक ऐसा सच, जो मेरी ज़िंदगी की दिशा ही बन गया... हैप्पी फादर्स डे बाबूजी!