रक्षाबंधन स्पेशल- रिश्तों में न आने दें स्वार्थ को
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रक्षाबंधन स्पेशल- रिश्तों में न आने दें स्वार्थ को

बहुत सारे कारणों के चलते भाई-बहन के प्यार का प्रतीक रक्षाबंधन भी स्वार्थ की भेंट चढ़ने लगा है।

रक्षाबंधन स्पेशल- रिश्तों में न आने दें स्वार्थ को

रिश्ता चाहे कोई भी हो, प्यार और विश्वास ही उसके आधार होते हैं। उस पर बात जब भाई-बहन के रिश्ते की हो तो इसमें प्यार, विश्वास के साथ-साथ एक और भाव जुड़ जाता है, वह है,  सुरक्षा का। जो कलाई पर राखी बांधती है, रेशम के धागों के साथ ये विश्वास भी बांध देती है कि मेरा भाई मेरे हर दुख-सुख का साझीदार होगा और जिसकी कलाई पर यह राखी बंधती है, उसके मन में होता है कि अपनी बहन पर कभी कोई संकट नहीं आने दूंगा। 
वर्तमान में हर चीज़ बदली है तो रिश्ते ही भला कैसे इससे अछूते रह जाते। आज ये तस्वीर आम है कि रिश्तों पर स्वार्थ और लालच हावी हो गया है। अब चाहे भाई-बहन का यह प्यारा सा रिश्ता ही क्यों न हो, वह निस्वार्थ भावनाओं का आधार कहीं दरक सा गया है, जो इस रिश्ते की पहचान हुआ करता था। अगर आज कई बहनें राखी ये सोच के बांधने लगी हैं कि इसके बदले में क्या मिलेगा तो भाई भी अपने उपहारों में स्नेह कम और तौल-मोल ज़्यादा देखने लगे हैं। सोचने वाली बात है कि किन बातों के चलते ऐसा हुआ होगा। 

लोग महत्वाकांक्षी हो गए हैं

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रिश्तों में आते दुराव के कई कारणों में से एक बड़ा महत्वपूर्ण कारण है यह। वर्तमान में जीवन इतना चुनौतीपूर्ण हो गया है कि हर इंसान किसी आपाधापी का शिकार लगता है। जीने की ज़रूरतें इतनी बढ़ चुकी हैं कि लोगों के दिन-रात काम-काज की बलि चढ़ जाते हैं और सामाजिक संबंधों को निभाने के लिए लोगों के पास वक़्त ही नहीं रह जाता है। अगर तीज-त्यौहार आते भी हैं तो ख़ुशी सिर्फ़ ऑफिस से छुट्टी मिलने की होती है। इसके अलावा तो उस त्यौहार से जुड़े ख़र्चों की चिंता सताने लगती है। अब राखी पर भी इस स्वार्थ की परत इस तरह से चढ़ने लगी है कि राखी की कीमत क्या थी और उपहार से वह वसूल हो पाई या नहीं, इस बात के तकाज़े तक होने लगते हैं और दूसरी तरफ़ यह सोच भी चल रही होती है कि एक धागे के बदले अपना पूरा बजट बिगाड़ लेना कहां की समझदारी है। उस पर अगर बहनें कहीं दूर रहती हैं तो राखी पोस्ट कर देना भाई और बहन दोनों को ज़्यादा सहज लगने लगा है।
ज़रा एक बार याद करके देखिए उस वक़्त को, जब राखी के दिन भाई सुबह से नहा-धोकर तैयार हो जाते थे और दरवाज़े की तरफ़ टकटकी लगाए तब तक भूखे बैठे रहते थे, जब तक कि उनकी बहन आकर उन्हें टीका करके राखी नहीं बांध देती थी। बहनें भी हफ़्तों पहले से राखी की तैयारियां शुरू कर देती थीं। अगर बहन शादीशुदा है तो मायके जाने का जो चाव होता था, सो अलग। पूरे बाज़ार से सबसे अच्छी राखी चुनने का कितना तनाव रहता था। राखी बांधते हुए थाली में जलते दीयों से ज़्यादा भाई-बहन की आंखें झिलमिलाती थीं, पर अब कितना-कुछ बदल गया है। 

संपत्ति में अधिकार मिलने से भी बदली थीं स्थितियां

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शादीशुदा भाई-बहनों की अगर बात करें तो एक सर्वेक्षण में यह बात भी निकलकर सामने आई थी कि जब से कानूनी रूप से बहनों को भी संपत्ति में बराबर का हक़ मिलने लगा है, चाहे वह विवाहित ही क्यों न हो, तब से इस रिश्ते में काफ़ी परिवर्तन देखने को मिला है। पहले मायके पक्ष के कुछ लोग समझते थे कि बेटी को जो भी देना-लेना है, उसकी शादी के मौके पर दहेज़ के रूप में दे देना ही काफ़ी है। बाकी की हर चीज़ पर तो बेटों का ही हक़ होता है। वही मानसिकता पूरे परिवार की होती थी। अब जब से यह कानून लागू हुआ है और बहनों ने भी बढ़-चढ़कर संपत्ति में अपना भाग लेना शुरू कर दिया है, तब से राखी भावनाओं का बंधन कम और एक औपचारिकता सी ज़्यादा बन गई है। एक अनजाना सी दूरी इस रिश्ते में आ गई है। 

कोरोना काल ने रिश्तों पर भी ग्रहण लगाया

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कोरोना ने तो पूरी दुनिया को इस तरह से बदलकर रख दिया कि जीने के मायने ही बदल गए हैं। सुरक्षा कारणों के चलते शुरू की गई सामाजिक दूरी को ख़राब आर्थिक स्थिति और बेरोज़गारी ने और भी बुरी तरह से प्रभावित किया है। ऐसे में न सिर्फ़ रक्षाबंधन, बल्कि ज़्यादातर त्यौहार अपने ख़र्चों के चलते ख़ुशी कम, चिंता की बात ज़्यादा बन गए हैं। लाखों लोगों ने अपनी नौकरी से हाथ धोया है। कहीं आना-जाना भी एक टास्क की तरह हो गया है। सुरक्षा के चलते लोग मिलने-जुलने से भी कतराने लगे हैं। ऐसे में रिश्तों की गर्माहट बचाए रखना भी कोई कम बड़ी बात नहीं है। उस पर बची-खुची कसर ऑनलाइन शॉपिंग ने पूरी कर दी है। जहां राखी और मिठाई ऑनलाइन ऑर्डर किए जा सकते हैं तो उपहार के साथ भी यही है। उस पर उपहार का झंझट भी क्यों खड़ा किया जाए। कुछ पैसे सीधे बहन के बैंक अकाउंट में ट्रांसफर करवा दो, काम पूरा। 
सुरक्षा के मानक अपनी जगह हैं, लेकिन दूरियां जगह में होनी चाहिए, दिलों में नहीं। अगर हम कोरोना काल की ही बात कर रहे हैं तो यह समय इतना अवसादग्रस्त है कि सभी को प्यार की और साथ की ज़रूरत, किसी भी और समय या बात से ज़्यादा है। सो कुछ तो ऐसा किया ही जा सकता है कि हाथ से छुएं या नहीं, मगर दिल ज़रूर छू जाएं।  

उपहार प्यार का प्रतीक हैं, स्वार्थ का नहीं

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प्यार का प्रतिदान क्या कभी भी कुछ और हो सकता है, हर्गिज़ नहीं, पर रक्षाबंधन पर सबसे ज़्यादा क्रेज़ जिस चीज़ का होता है, वह उपहार ही होता है। बहन जितने चाव से राखी बांधती है, उतनी ही उत्सुकता उसे इस बात की भी रहती है कि उसे गिफ्ट क्या मिलने वाला है। बेशक उपहार प्यार का प्रतीक होते हैं, लेने  वाले के लिए भी और देने वाले के लिए भी, मगर देने वाले के लिए अगर वह बोझ बन जाए और लेने वाला उसके प्राइज़ टैग से उसकी कीमत आंके, तब उपहार से प्यार नहीं, बल्कि स्वार्थ झलकने लगता है। ऐसे में रिश्ते भी औपचारिक होते देर नहीं लगती। भाई-बहन के रिश्ते में जो प्यार, विश्वास, आत्मीयता और सुरक्षा का एहसास जुड़ा होता है, उसे किसी भी और चीज़ से तौला नहीं जा सकता। 

सबसे ऊपर होता है स्नेह का भाव

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समय चाहे कैसा भी हो, उतार-चढ़ाव चाहे कितने भी हों, हारी-बीमारी चाहे कितनी भी आती-जाती रहे, हालात चाहे सुख के हों या दुख के, भाई-बहन के आपसी रिश्तों पर कोई चीज़ हावी नहीं होनी चाहिए। इस रिश्ते में सिर्फ़ प्यार ही नहीं होता, बल्कि खट्टी-मीठी तक़रार और नोंक-झोंक भी जुड़ी होती है। कितनी सारी शरारतों का गवाह दोनों का बचपन होता है। कितने सारे आपसी राज़ दोनों के दिलों में छिपे होते हैं। क्या उन सारी यादों को भुलाना इतना आसान है, नहीं न। फिर देर किस बात की, अगर कोई शिकवा-शिकायत है भी तो उसे दूर करने में पहल करने से संकोच न करें इस रक्षाबंधन पर। 
 नसीब हैं उन कलाइयों के, जिन पर कोई राखी बांधने वाला है और ख़ुशकिस्मत हैं वे राखियां, जिनके पास कोई कलाई है। रक्षाबंधन के इस त्यौहार पर चलिए, एक बार फिर से ताज़ा करें अपने आपसी प्यार की मुर्झाती बहार को।