जब बच्चे का जन्म बन जाए मां की उदासी की वजह
Welcome To CitySpidey

Location

जब बच्चे का जन्म बन जाए मां की उदासी की वजह

गर्भावस्था के बाद होने वाले पोस्टपार्टम डिप्रेशन के बारे में कम ही लोगों में जागरुकता है।

जब बच्चे का जन्म बन जाए मां की उदासी की वजह

एक शिशु का जन्म, मतलब ज़िंदगी से ज़िंदगी का आना। किसी भी महिला के लिए यह बहुत ही अनूठा, बहुत ही मार्मिक अनुभव होता है, इसीलिए तो कहा जाता है कि एक बच्चे के जन्म के साथ ही एक मां का भी जन्म होता है। बेहद ममता और प्यार से भरी इस तस्वीर का एक दूसरा चेहरा भी है। डिलीवरी के बाद कई ऐसी मांएं भी होती हैं, जो शिशु के जन्म से जुड़ी ख़ुशी और रोमांच को महसूस ही नहीं कर पाती हैं। उल्टा वे तनाव की शिकार हो जाती हैं, जिसके चलते वे बच्चे तक से कोई लगाव महसूस नहीं कर पाती हैं। यहां तक कि कई मामलों में तो उन्हें आत्महत्या करने तक का ख़याल आने लगता है। यही होता है पोस्टपार्टम डिप्रेशन। आइए, इस विषय को थोड़ा और बेहतर ढंग से समझने की कोशिश करते हैं। 

क्या होता है पोस्टपार्टम डिप्रेशन

पोस्टपार्टम डिप्रेशन एक प्रकार का ऐसा तनाव है, जो कि गर्भावस्था के दौरान या फिर डिलीवरी के बाद हो सकता है। लगभग बीस से सत्तर प्रतिशत महिलाओं में यह समस्या देखने को मिल सकती है। भारत में पहले इस समस्या को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लिया जाता था, बल्कि  सही मायनों में  इसकी पहचान ही नहीं हो पाती थी। अब इस समस्या पर न सिर्फ़  ध्यान दिया जाता है, बल्कि इसके उपचार के विषय में भी गंभीरता बरती जाती है। गर्भावस्था के दौरान या प्रसव के बाद डॉक्टर के संपर्क में आने पर भी इस विषय में जानकारी मिल जाती है। 


पोस्टपार्टम डिप्रेशन को कैसे पहचानें 

Credit: CitySpidey

आजकल तो कई अस्पतालों में बच्चे के जन्म के समय या गर्भावस्था के दौरान डॉक्टर्स ख़ुद ही इस बात को पहचानने की कोशिश करते हैं कि कहीं उस महिला में पोस्टपार्टम की समस्या या उसके लक्षण तो नहीं। शुरुआती लक्षणों को पोस्टपार्टम ब्लूज़ के नाम से भी जाना जाता है। इसके अंतर्गत मां को बच्चे के प्रति भावनात्मक लगाव होने की बजाय चिंता होने लगती है। कुछ मामलों में वह बच्चे के प्रति कोई लगाव ही महसूस नहीं कर पाती और उससे दूरी बनाने की कोशिश करती है। वह लगातार उदास और चिड़चिड़ी बनी रहती है। बच्चे के साथ समय बिताना या दूध पिलाना भी उसे अच्छा नहीं लगता है। वह लगातार किसी चिंता में डूबी भी दिख सकती है। बार-बार रोने का मन कर सकता है। मूड तेज़ी से बदलता रहता है। नींद न आना और बच्चे को दूध पिलाने के बावजूद भूख न लगना इस बीमारी के बढ़ने के बाद दिखने वाले लक्षणों में से कुछ हैं। यहां तक कि बार-बार अपने मातृत्व के प्रति उनमें उदासीनता देखने को मिल सकती है। कुछ मामलों में तो महिलाएं आत्महत्या तक करने के बारे में भी सोचने लगती हैं। यह इस रोग की सबसे भयानक अवस्था हो सकती है, इसलिए बहुत ज़रूरी है कि समय रहते न सिर्फ़ पोस्टपार्टम की समस्या को पहचान लिया जाए, बल्कि उसके ज़रूरी उपचार पर भी ध्यान दिया जाए, क्योंकि देरी मां की सेहत के साथ-साथ बच्चे के लिए भी हानिकारक साबित हो सकती है।

पोस्टपार्टम डिप्रेशन होने की वजह

Credit: CitySpidey

गर्भावस्था से लेकर डिलीवरी तक एक महिला को मानसिक और शारीरिक रूप से बहुत-कुछ बर्दाश्त करना पड़ता है। उसका तन-मन बहुत सारी उथल-पुथल से गुज़रता है। बहुत सारा दर्द, बहुत सारी स्वास्थ्य समस्याएं तो उसे सहनी ही पड़ती हैं, कई मामलों में बहुत सारी अपेक्षाओं का बोझ भी उसे झेलना पड़ता है, ख़ासकर भारत में। होने वाला शिशु लड़का ही हो, बच्चा ख़ूब गोरा हो, स्वस्थ हो वग़ैरह-वग़ैरह। यदि बदकिस्मती से बच्चे में कोई विकार हो तो यह स्थिति और भी जटिल हो जाती है। सबसे पहली बात तो यह कि कई बार महिला की इस इच्छा को कोई स्थान ही नहीं मिलता कि वह मां बनना भी चाहती है या नहीं। उसका अपना करियर भी दांव पर लगता है। साथ ही उसे इस बात की भी आशंका होती है कि वह एक अच्छी मां साबित हो पाएगी या नहीं। बच्चे की देखभाल ठीक से कर पाएगी या नहीं। आर्थिक संसाधनों की कमी का दबाव भी पोस्टपार्टम डिप्रेशन की वजहों में से एक होता है। प्रसव के बाद महिलाओं के हार्मोन्स में बदलाव भी बहुत बड़े पैमाने पर होते हैं। इसके अंतर्गत एस्ट्रोजन, प्रोजेस्ट्रोन, टेस्टोस्टेरोन जैसे हारमोंस में बदलाव देखने को मिलते हैं, जिससे उस महिला का व्यवहार भी प्रभावित होना बड़ी सामान्य सी बात है। उसे अपने शारीरिक बदलावों, बेडौलपने या फिगर ख़राब होने की बहुत अधिक चिंता भी इस समस्या का शिकार बना सकती है। 

पोस्टपार्टम डिप्रेशन के ख़तरे

Credit: CitySpidey

यदि पोस्टपार्टम डिप्रेशन किसी महिला में केवल शुरुआती अवस्था में है, यानी कि सिर्फ़ पोस्टपार्टम ब्लूज़ तक ही सीमित है, तब तो इसे एक वक़्ती अवस्था मानकर इसके निदान पर ध्यान दिया जा सकता है, लेकिन यदि यह समस्या गंभीर हो चुकी है या होती जा रही है तो इसके लिए चिंतित होना ज़रूरी हो जाता है। यह किसी महिला में न सिर्फ़ उसके ऊर्जा के स्तर को, उसकी ख़ुशियों को, उसके करियर को, उसके पारिवारिक जीवन को, उसके सामाजिक संबंधों को प्रभावित करती है, बल्कि उसका जीवन तक भी ख़तरे में पड़ सकता है, क्योंकि ऊपर बताए कई कारणों के चलते उसे स्थिति का सामना करने की बजाय आत्महत्या करना ज़्यादा सरल और सही लगता है। यहां तक कि कई बार बच्चे से भी बहुत ज़्यादा दूरी बना लेती है, जिससे बच्चे के शारीरिक, मानसिक विकास और स्वास्थ्य, सभी प्रभावित होते हैं। यदि तनाव अपनी सीमा पार करने लगे तो बच्चे के प्रति बढ़ते ख़तरे की आशंका को भी नकारा नहीं जा सकता।

पुरुषों में भी संभव है पोस्टपार्टम डिप्रेशन

Credit: CitySpidey

कुछ समय पहले तक तो ऐसा माना जाता था कि पोस्टपार्टम डिप्रेशन केवल महिलाओं में होने वाली समस्या ही है, लेकिन एक स्टडी के अनुसार यह आधा सच ही है। अगर मातृत्व एक महिला में परिवर्तन लाता है तो पुरुष भी इससे अछूते नहीं होते हैं। उन पर भी कई तरह के दबाव होते हैं, जो उनके इस रोग की चपेट में आने की वजह बन सकते हैं। बच्चे के जन्म के साथ ही लगभग 5 से 10 प्रतिशत तक पिता तो सामान्यत: वैसे ही तनावग्रस्त हो जाते हैं कि वे अच्छे पिता बन पाएंगे या नहीं। बढ़े हुए आर्थिक ख़र्च भी तनाव का एक बड़ा कारण होते हैं, क्योंकि आमतौर पर परिवार का भरण-पोषण पुरुष की ही ज़िम्मेदारी मान लिया जाता है। बच्चे के पालन-पोषण संबंधी जानकारी की कमी होना भी इसके कारणों में से एक है। इसके अलावा अगर किसी पुरुष की पार्टनर पोस्टपार्टम डिप्रेशन से जूझ रही है तो उस पुरुष में भी इस समस्या के लक्षण देखने को मिल सकते हैं, जिसका अनुपात लगभग 24  से 50 प्रतिशत तक है। इसके चलते पुरुष चिड़चिड़े हो जाते हैं, उन्हें बार-बार गुस्सा आता रहता है, वे हिंसक तक हो जाते हैं और बच्चे या अपनी पार्टनर से दूरी तक बना लेते हैं। समझने वाली बात यह है कि पुरुषों को आमतौर पर बहुत ज़्यादा ही मज़बूत मान लिया जाता है, लेकिन भावनाएं तो उनमें भी उतनी ही आम होती हैं, जितनी महिलाओं में। बस उन्हें अपनी भावनाओं और चिंताओं का इज़हार करना नहीं आता। 
 
पोस्टपार्टम डिप्रेशन का उपचार

Credit: CitySpidey


 
एक स्त्री का मां बनना सिर्फ़ उस महिला के लिए ही नहीं, बल्कि बच्चे के पिता और बाकी के पूरे परिवार के लिए भी एक ख़ुशी भरा पल होता है। तब गर्भावस्था के दौरान या बच्चे की परवरिश में भी उन सभी की भूमिका और सहयोग होना चाहिए।  इससे वह महिला न सिर्फ़ पोस्टपार्टम, बल्कि और भी कई तरह की चिंताओं से मुक्त रह सकती है। फिर भी अगर इस रोग की चपेट में आ ही जाएं तो शुरुआती अवस्था में सही खान-पान, व्यायाम, ध्यान करने, परिवार के सदस्यों के भावनात्मक सहयोग से इस समस्या का निदान तलाशा जा सकता है, लेकिन अगर रोग बढ़ चुका है तो तुरंत किसी अच्छे मनोचिकित्सक से मिलना ज़रूरी हो जाता है। समस्या की गंभीरता को देखते हुए वह काउंसलिंग की सलाह भी दे सकते हैं और कुछ दवाएं भी शुरू करवा सकते हैं। फिर भी उस रोग की सबसे बड़ी दवा अपनों का प्यार और साथ ही है। 

(यह आलेख जाने-माने मनोवैज्ञानिक डॉक्टर समीर पारीख से बातचीत पर आधारित है।)