कहीं आप अकेले न रह जाएं सोशल मीडिया की बदौलत!
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कहीं आप अकेले न रह जाएं सोशल मीडिया की बदौलत!

सोशल मीडिया की वजह से लोगों की सामाजिक सहभागिता बुरी तरह प्रभावित हुई है।

कहीं आप अकेले न रह जाएं सोशल मीडिया की बदौलत!

कुछ दिन पहले मैंने एक चुटकुला पढ़ा था। एक लड़के को एक चैट मैसेज मिलता है, “आकर खाना खा लो।“ लड़का पूछता है, “आप कौन?” जवाब मिलता है, “तुम्हारी मम्मी! फोन छोड़कर अपने कमरे से बाहर आओ और नीचे आकर खाना खा लो।” कहने को तो यह मज़ाक है, मगर इससे बड़ी हकीकत सोशल मीडिया के बारे में और क्या होगी! अगर एक बार हाथ में स्मार्ट फोन आ जाए तो फिर सोशल मीडिया की खिड़की खुलते ही बाकी की दुनिया कब दूर हो जाती है, इसका पता ही नहीं चलता। इस बात का न तो एहसास होता है, न एहसास करने की ज़रूरत। 
आजकल हम अक्सर लोगों को इस बारे में बात करते देखते हैं कि सोशल मीडिया पर उनके कितने सारे फ्रेंड्स हैं या कितने सारे फॉलोअर्स हैं। इससे हमें लगता है कि फ़लां शख़्स कितना ज़्यादा ‘सोशल’ है या कितना फेमस है। सोशल मीडिया पर उसके इतने सारे फ्रेंड्स और फॉलोअर्स होना इस बात के सबूत भी लगते हैं, लेकिन असल में देखा जाए तो इस आदत के चलते उसका वास्तविक सामाजिक जीवन ख़तरे में पड़ जाता है।

मृगतृष्णा है सोशल मीडिया की आभासी दुनिया

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आज चाहे आप कहीं भी हों, कुछ भी कर रहे हों, एक बार नज़र उठाकर अपने आस-पास देखिए, हर दस में से नौ लोग फोन पर नज़रें गड़ाए हुए मिलेंगे। उन नौ में से भी आठ लोग सोशल मीडिया पर व्यस्त होंगे। उन्हें न तो अपने आस-पास के लोगों की तरफ़ नज़र उठाकर देखने की फ़ुर्सत होती है, न ही कोई बातचीत करने में दिलचस्पी। लोग अक्सर सिर्फ़ अकेले होने पर ही फोन में जुटे हुए नहीं दिख जाते, बल्कि कई बार तो ग्रुप में बातचीत करते हुए भी ज़रा-ज़रा सी देर में स्टेटस चैक करते रहेंगे या फिर यूं ही फोन में व्यस्त रहेंगे। इसके चलते असल में देखा जाए तो ग्रुप बन ही कहां पाते हैं। लोगों ने अपनी ही एक ऐसी आभासी दुनिया बना ली है, जहां वे अकेले होते हुए भी हज़ारों लोगों की भीड़ से घिरे हैं। अपने होने का एहसास दिलाने के लिए वे लाइक, शेयर और कॉमेंट पर ही टिके रहते हैं और ये जितने ज़्यादा होते हैं, उन्हें अपनी पॉपुलैरिटी का एहसास उतना ही ज़्यादा होने लगता है, जबकि सच तो यह है कि वे अपने दोस्तों, परिजनों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों आदि से धीरे-धीरे दूर होते जाते हैं, क्योंकि उनके पास इनके लिए वक़्त ही नहीं बचता है। यहां तक कि एक ही घर में रहते हुए अक्सर वे अपने ही घरवालों से ज़्यादा बातचीत नहीं करते हैं और अपने में मगन रहते हैं।

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आदत बदल जाती है एडिक्शन में

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कोई भी आदत एडिक्शन बनना तो दूर, आदत भी एक दिन में नहीं बनती है, जब तक कि उसमें कोई ऐसा आकर्षण न हो, जो  लोगों को अपनी तरफ़ खींचे। स्मार्ट फोन की बदौलत फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम वग़ैरह जैसी कितनी ही सोशल साइट्स ऐसी हैं, जो किसी को भी दिन भर व्यस्त रखने के लिए काफ़ी हैं। आप ज़रा-ज़रा सी देर में यह चैक करने के लिए फोन उठाकर देखते रहते हैं कि कोई ज़रूरी मैसेज या नोटिफिकेशन तो नहीं छूट गया, जबकि आपने उसकी बैल या टोन सेट की हुई है। थोड़ी देर फोन आपके पास न हो तो आपको अजीब सी बेचैनी होने लगती है। रात को भी आप देर तक फोन पर लगे रहते हैं और आंखों में नींद का नामोनिशान तक नहीं होता। लोगों से बात करने में या मिलने-जुलने में आपकी दिलचस्पी कम होने लगती है, यहां तक कि यह आपको ग़ैर ज़रूरी और समय की बर्बादी तक लगने लगता है। अक्सर लगता है कि फोन की घंटी बज रही है, लेकिन ऐसा होता नहीं है। अगर किसी सोशल साइट पर आपकी पोस्ट या फोटो अनदेखी रह जाती है या फिर उसे आपका मनचाहा रिस्पॉन्स नहीं मिलता तो आपका मूड ख़राब हो जाता है, आप चिड़चिड़ाने लगते हैं। कहीं भी, कोई भी एक्टिविटी आप रियल में इनज्वॉय करने की बजाय उसकी फोटो खींचकर सोशल मीडिया पर तुरंत अपलोड करना ज़्यादा ज़रूरी समझते हैं। ये सभी असल में इस बात के लक्षण हैं कि आप सोशल मीडिया के एडिक्शन की गिरफ़्त में आ चुके हैं। 

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सोशल मीडिया से अपराधों को भी मिला है बढ़ावा

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आपने यह तो सुना ही होगा कि कभी किसी की प्रोफाइल हैक कर ली गई है तो कभी कोई ज़रूरत के नाम पर पैसे मांगकर फ्रॉड करता पकड़ा गया है। सिर्फ़ इतना ही नहीं, कई लोग अपनी आईडी बदलकर या लड़कियों की आई बनाकर पहले दोस्ती करते हैं, घनिष्ठता बढ़ाते हैं, फिर नज़दीकी बढ़ने पर ब्लैकमेल तक करने लगते हैं। यहां तक कि रेप, किडनैपिंग या मर्डर जैसे बड़े अपराध भी सोशल मीडिया की वजह से देखने-सुनने को मिल ही जाते हैं। ऐसे में इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि सोशल मीडिया जहां एक तरफ़ ढेर सारे दोस्त बना देती है, वहीं दुश्मनों की भी कोई कमी नहीं रह जाती। 

ऐसे बचें सोशल मीडिया एडिक्शन से

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कोई भी चीज़ बुरी नहीं होती, बुरी होती है उसकी लत। सोशल मीडिया भी तब तक बुरा नहीं है, जब तक कि उसकी वजह से आपका सामाजिक जीवन और स्वास्थ्य न प्रभावित हो। सोशल मीडिया की बदौलत हमारी अभिव्यक्ति और रचनात्मकता को बढ़ावा मिलता है। हमें बहुत सारी ऐसी जानकारी भी मिलती है, जो वैसे शायद न मिले, लेकिन जब यह आदत या सूचना का संसार हमें इतना प्रभाव में ले ले कि इसके बिना बाकी चीज़ें नगण्य लगने लगें, तब ज़रूर चिंता की बात है। 
ऊपर हम इसके लक्षण तो बता ही चुके हैं। अब ज़रूरत है, उनके आधार पर अपनी आदत में सुधार लाने की। सबसे पहली बात तो यह समझ लीजिए कि सोशल मीडिया की आभासी दुनिया के आपके कई ‘फ्रेंड्स’ ऐसे भी होंगे, जो अगर सामने से निकल जाएं तो न वे आपको पहचानेंगे, न आप उन्हें। सोशल मीडिया पर हुई दोस्ती अक्सर दोस्ती की सच्ची परिभाषा से बहुत दूर होती है, इसलिए इनके चलते अपने उन दोस्तों से दूरी न बनाएं, जो वास्तव में आपके सुख-दुख के साझेदार हैं। परिवार के साथ समय बिताएं। अपनी हर व्यक्तिगत बात या फोटो सोशल मीडिया पर शेयर न करें, न ही लाइक, शेयर या कॉमेंट के मायाजाल में फंसें। जब ज़रूरत न हो, फोन को अपने से दूर ही रखें और उसे बार-बार चैक करने से भी बचें। जब कोई फोन या मैसेज आएगा तो आपकी बैल या टोन से आपको पता चल जाएगा। कभी-कभी ‘फोन-फास्टिंग’ भी कीजिए, यानी कोई दिन ऐसा भी हो, जब आप पूरे दिन या कुछ घंटों के लिए सोशल मीडिया या स्मार्ट फोन के बिना वक़्त बिताएं। रात को देर तक फोन पर न लगे रहें, बल्कि सोते समय ऐसा कुछ न देखें, जो आपको ज़्यादा मनोरंजक लग रहा हो, क्योंकि इससे आपकी नींद ही नहीं, बाकी सेहत भी प्रभावित हो सकती है।
जैसाकि हमने पहले ही कहा कि शै कोई भी बुरी नहीं होती, अगर वह लत में न बदल जाए। अब जबकि हम ये समझ चुके हैं कि सोशल मीडिया की हमारी छोटी सी ज़रूरत कब बड़ी सी आदत में बदल जाती है तो हमें उसका समाधान करते हुए भी देर नहीं करनी चाहिए।