नवरात्रि के दिनों का हम सभी को बड़ी बेसब्री से इंतज़ार होता है, क्योंकि इसी के साथ जहां एक ओर पूरे वातावरण में एक तरह की सात्विकता और सकारात्मकता व्याप्त हो जाती है, वहीं दूसरी ओर तीज-त्यौहारों का सिलसिला भी शुरू हो जाता है। नवरात्रि को नौ दिनों तक देवी मां के नौ स्वरूपों की पूजा होती है, जिसे शक्ति-उपासना कहा जाता है, यानी मां के शक्ति रूप की उपासना। दरअसल, अगर हम इसमें छिपे निहित को देखें तो इसमें शक्ति की उपासना के माध्यम से अपनी शक्ति को जाग्रत करने का संदेश छिपा हुआ होता है।
हालांकि हम अपने आस-पास नज़र दौड़ाएं तो हम शक्ति-उपासना के इस व्रत को बहुत सीमित अर्थों में किया जाता हुआ पाते हैं। इन नौ दिनों में लोग पूजा-पाठ तो ख़ूब करते हैं और व्रत रखते हुए अनाज खाना भी छोड़ देते हैं, जिसे वे उपवास का नाम देते हैं, लेकिन अधिकांश लोग अनाज तो छोड़ देते हैं, मगर फलाहार या व्रत के व्यंजन के रूप में और दिनों से ज़्यादा ही खा लेते हैं, जैसेकि- फल, उबले हुए आलू, दही, सामां के चावल, कुट्टू का आटा, सिंघाड़े का आटा, साबूदाना। उस पर सोने पर सुहागा होता है कि व्रत का नमक तक उपलब्ध है। कई जाने-माने रेस्टोरेंट्स तो इस मौके पर नवरात्रि की विशेष फलाहार थाली भी उपलब्ध कराते हैं। सो दिन भर में यह आहार चक्र व्रत के नाम पर ही चलता रहता है। कई लोग जो दिन में ज़्यादा कुछ नहीं लेते, वे शाम को व्रत खोलते हुए भारी-भरकम आहार ले लेते हैं, जिसके पीछे यह मनोविज्ञान काम करता है कि वे पूरे दिन व्रती, यानी कि भूखे रहे थे।
क्या शक्ति-उपासना का अर्थ सिर्फ़ इतना ही है? जवाब हम सभी जानते हैं कि यह इस व्रत का सही रूप नहीं है। फिर भी अपनी भागती-दौड़ती, व्यस्त दिनचर्या में हमारे पास शायद इतना समय ही नहीं होता कि हम इस व्रत के सही-सच्चे अर्थों में जाकर पूरे नियम-कायदे के साथ इस व्रत का पालन कर सकें।
फिर भी अगर शक्ति की उपासना में ही हम आत्मशक्ति को जाग्रत न कर पाएं, अपने आत्मबल को न बढ़ा पाएं, अपनी सामर्थ्य को न पहचान पाएं तो उस व्रत का लाभ ही क्या है। क्या वह फिर महज़ औपचारिकता ही नहीं है।
जब हम सभी इस बात को जानते हैं तो क्यों न इस बार हम शक्ति-उपासना के इस पर्व पर अपनी शक्ति को पहचानें।
पहला दिन
जिस पल आप अपने मंदिर में जोत जलाएं, एक जोत अपने मन में भी जाग्रत करें, अपने पर विश्वास की। बाहरी दुनिया में हम इतने उलझ जाते हैं कि भ्रमित होकर रह जाते हैं। हम क्या हैं, हमारी शक्ति क्या है, हम में कितनी क्षमता है, यह अक्सर भेड़चाल में चलते हुए हम भूलने लगते हैं। इस विश्वास को अपने मन में जगाइए। अपने-आप पर, अपनी शक्ति और सामर्थ्य पर विश्वास करना सीखिए।
दूसरा दिन
आपने व्रत के नाम पर अपने को तो भूखा रखा ही हुआ है, अब इसी भूख के एहसास से अपने अंदर इस भाव को भी ज़िंदा रखिए कि आपकी वजह से कभी किसी की रोटी पर आंच न आए। आप समझ सकें कि भूख होती क्या है तो आप दूसरों के साथ अपने निवाले बांटने की अहमियत भी सीख जाएंगे। हो सकता है कि आप हमेशा किसी की भूख न मिटा सकें, लेकिन जब भी मौका मिले, अपने निवालों में से दो निवालों की गुंजाइश किसी और के लिए रखते हुए अन्न के महत्व को समझिएगा। साथ ही खाना कभी भी बेकार या जूठा न छोड़ने की आदत भी अपना लीजिएगा।
तीसरा दिन
हमारा गुस्सा ही हमारा सबसे बड़ा शत्रु होता है। हमें अक्सर कोई और इस तरह से पराजित नहीं कर पाता है, जिस तरह से गुस्से में की गई किसी ग़लती से हम हार जाने पर होते हैं। अपने पूजा-पाठ से आप मन की शांति पाने की कोशिश तो करते ही हैं न, बस उसी शांति को अपने व्यवहार में अपना कर आप अपने गुस्से पर भी काबू पा सकते हैं। शांत दिलोदिमाग़ से लिए गए फ़ैसले भी कभी ग़लत नहीं होते हैं।
चौथा दिन
अपनी इच्छाओं को अगर हम आसानी से काबू कर सकें तो बात ही क्या है। कहा भी जाता है कि इस दुनिया में सभी की ज़रूरतें पूरी करने की भरपूर क्षमता है, लेकिन किसी के भी लालच-लोभ को पूरी धरती मिलकर भी कभी पूरा नहीं कर सकती। शायद हम उतने लोभी न हों, लेकिन हमारी ज़रूरतें कब छोटी से बड़ी और बड़ी से बहुत बड़ी होती चली जाती हैं, हमें इसका पता ही नहीं चलता। अक्सर मज़ाक में यह बात कही जाती है कि हर रोज़ हम सोचते हैं कि हम क्या पहनें और फिर अक्सर ही ये बात भी कहते हैं कि पहनने के लिए कुछ ढंग का है ही नहीं। ये तो थी मज़ाक की बात, लेकिन सच इससे कोई बहुत ज़्यादा अलग नहीं है। ख़ुद अपना आंकलन करके देखिए, कहीं अनजाने में आप भी तो अपनी ज़रूरतों को अंतहीन नहीं बना चुके हैं।
पांचवां दिन
इस दुनिया का बहुत मुश्किल काम है माफ़ी मांगना और उससे भी मुश्किल है माफ़ कर देना। इसके फ़ायदे हम सभी जानते हैं, लेकिन सिर्फ़ फ़ायदे जान लेना ही काफ़ी नहीं है। हम इस पर अमल कितना करते हैं। ये बात तो आपने भी लोगों के मुंह से कई बार सुनी होगी कि मैं ग़लत बात बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर सकता। हो सकता है कि आपने भी ये बात कई बार कही होगी, लेकिन फिर ये बताइए कि बात अगर सही है तो उसमें बर्दाश्त करने जैसा है क्या? ग़लत बातें अक्सर गुस्सा दिला देती हैं, नाराज़ करा देती हैं, दिलों में दूरियां बढ़ा देती हैं। कोशिश करके देखिए अपनी ग़लती पर माफ़ी मांग लेने की और दूसरे की ग़लती पर माफ़ कर देने की। दुनिया थोड़ी ज़्यादा आसान हो जाएगी।
छठां दिन
अहंकार हमें सिर्फ़ और सिर्फ़ डुबोने का काम ही कर सकता है, चाहे वह अपनी अच्छाई का ही क्यों न हो। अगर हम में अहंकार आने लगता है तो हमारी नया सीखने और आगे बढ़ने की क्षमता सबसे पहले प्रभावित होने लगती है, क्योंकि हम तो ये मान बैठे होते हैं कि हमें सब-कुछ आता है। वैसे भी ज़माना ‘आई एम द बेस्ट’ का है। फिर इस भेड़चाल से बचना किसी के लिए भी आसान कहां है। वैसे अपने पर भरोसा करना बहुत अच्छी बात है और ज़रूरी भी है, लेकिन उस काबिलियत या भरोसे को अहंकार में बदल देना ज़रूर ग़लत है।
सातवां दिन
क्या आपने कभी यह कहा-सुना है कि मुझे तो मुंह पर ही सच बोलने की आदत है, पर क्या वास्तव में ऐसा होता भी है। सच्चाई की राह बहुत सी उलझनों से बचा लेती है, लेकिन यह राह अपने-आप में बहुत कठिन है। सच बोलना आसान नहीं है और सच सुनना तो उससे भी कठिन। फिर कई बार दुविधा इस बात की भी होती है कि सच बोलना किसी को परेशानी में डाल सकता है और झूठ बोलकर किसी को बचाया जा सकता है। ये फ़ैसला तो स्थिति के अनुसार अपने विवेक पर छोड़ देना चाहिए और राह हमेशा सच की ही अपनानी चाहिए। कहते हैं न कि एक सच, सौ सुख।
आठवां दिन
किसी भी बात की आदत डालना आसान नहीं होता, लेकिन हर आदत अच्छी हो, ऐसा भी तो ज़रूरी नहीं। कई बार तो हम अपनी कई आदतों को ख़ुद भी जानते हैं कि वह बुरी आदत है और उसे छोड़ना भी चाहते हैं, लेकिन छोड़ नहीं पाते हैं। नवरात्रि के दिनों में अक्सर लोग अपनी बहुत ही आदतों को नौ दिन के लिए छोड़ देते हैं। अगर किसी आदत को नौ दिन के लिए छोड़ा जा सकता है तो हमेशा के लिए क्यों नहीं! बात बस इच्छाशक्ति की है और इसी इच्छाशक्ति को मज़बूत करने का ही तो पर्व है शक्ति की उपासना।
नौवां दिन
दूसरों को सम्मान देना, वह भी दिल से, आपको भी दूसरों की नज़रों में सम्मान का पात्र बना देता है। वैसे आख़िर हम भी तो हमेशा यही चाहते हैं कि लोग हमें प्यार करें, हमें सम्मान दें तो चलिए इस सिलसिले की शुरुआत हम अपने-आप से ही करें। ऐसा शायद ही कोई हो, जिसमें कोई न कोई कमी न हो, जो कभी कोई ग़लती न करता हो, हम भी तो ऐसे ही हैं। बस इसी एक बात को याद रखकर हम दूसरों को ज्यों का त्यों स्वीकार करना और उनसे किसी भी तरह की अपेक्षाएं करना बंद कर दीजिए। फिर हमें दूसरों से शिकायत भी कम होने लगेगी। दूसरों के दोष नज़र आना भी धीरे-धीरे कम होते-होते बंद ही हो जाएंगे।
कोशिश करके देखिए, शायद व्रत में की गई इस एक दिन की प्रैक्टिस से ही अपनी आदतों में बदलाव की राहें निकल आएं। आख़िर शक्ति-उपासना का तो अर्थ ही अपनी सोई हुई शक्तियों को जागाना है।