संजना तिवारी- किताबों के बीच किताबी-सी शख़्सियत
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संजना तिवारी- किताबों के बीच किताबी-सी शख़्सियत

क्या आप जानते हैं कि संजना तिवारी कौन हैं? जानेंगे तो आप भी भर उठेंगे स्नेह और सम्मान से।

संजना तिवारी- किताबों के बीच किताबी-सी शख़्सियत

पहली नज़र में देखने पर संजना तिवारी एक साधारण सी घरेलू महिला लगती हैं, जो मंडी हाउस में श्रीराम सेंटर फॉर परफॉर्मिंग आर्ट्स के बाहर फुटपाथ पर किताबें लगाए बैठी रहती हैं। मंडी हाउस को 'कलाकारों की नगरी' कहा जाता है, जहां आए दिन रंगकर्मियों, कलाकारों, साहित्यकारों और इन कलाओं के प्रशंसकों को जमावड़ा लगा रहता है। उन सभी के बीच संजना तिवारी की मौजूदगी का क्या कारण है और क्या बात उन्हें ख़ास बनाती है, यह संजना तिवारी को जानने के बाद ही समझ में आता है।

भले ही संजना तिवारी फुटपाथ पर ही किताबों की छोटी सी दुनिया सजाए उन्हें बेचती नज़र आती हैं, लेकिन पहली बात तो यह कि यह साहित्य फुटपाथ पर होने के बावजूद 'फुटपाथिया' नहीं है, बल्कि यहां आपको मिलेगा हिंदी का उच्चकोटि का श्रेष्ठ साहित्य, जिनमें प्रेमचंद से लेकर नीलोत्पल मृणाल तक और मिर्ज़ा ग़ालिब से लेकर अशोक चक्रधर तक शामिल हैं।

दूसरी बात, संजना तिवारी इन किताबों को सिर्फ़ बेचती नहीं हैं, बल्कि यहां मौजूद एक-एक किताब उनकी पढ़ी हुई है, जिसके बारे में वे सजग-सतर्क राय भी रखती हैं। ये राय इतनी पुख़्ता और परिपक्व होती है कि किसी भी आलोचक की समीक्षा से कमतर नहीं है। साथ ही चोटी के लेखकों की अधिकांश किताबों के नाम भी उन्हें याद रहते हैं। कौन सी किताब कालजयी है, कौन सी किताब हाल ही में आई है, कौन सी किताब पाठकों द्वारा ज़्यादा पसंद की जाएगी, कालजयी नाटक कौन से हैं, चर्चित और लोकप्रिय नाटकों की किताबें कौन सी हैं, से लेकर कौन सी किताब बड़े लेखक की होने के बावजूद 'सतही' तौर पर लिखी गई है और किस किताब का लेखक नया है, लेकिन दमदार है, इन सभी जानकारियों का चलता-फिरता ज़ख़ीरा हैं संजना तिवारी।

संजना के इस किताबी से लगते किताबों के सफ़र की शुरुआत कब और कैसे हुई थी, यह भी अपने-आप में एक दिलचस्प कहानी है। यहां सड़क पर अपनी किताबों की दुकान लगाने से पहले वे वाणी प्रकाशन के बुक कॉर्नर की इंचार्ज हुआ करती थीं, जो कि श्रीराम सेंटर फॉर परफॉर्मिंग आर्ट्स के अंदर था। मामूली तनख़्वाह के बावजूद संजना वहां ख़ुश थीं, क्योंकि काम करने के साथ-साथ उनका पुस्तक-प्रेम भी खाद-पानी पा रहा था। यह दिमाग़ी सुख ऐसा था कि पैसों का अभाव भी खलता नहीं था। फिर 2008 में यह बुक कॉर्नर किन्हीं कारणों से बंद हो गया। संजना की नौकरी भी गई और एक नितांत निजी कहा जाने वाला बौद्धिक सुख भी छिना।

संजना करावल नगर में अपने पति और बच्चों के साथ रहती हैं। उनके पति भी एक दैनिक समाचार पत्र में काम किया करते थे। संजना इस बात को समझती थीं कि दिल्ली जैसे महानगर में जब तक पति-पत्नी दोनों ही काम न करें, तब तक घर चलाना एक टेढ़ी खीर है। सो काम करना संजना की मजबूरी भी थी, जो उन्हें यह बुक कार्नर बंद हो जाने के बाद ले गई ज्ञानपीठ प्रकाशन की दहलीज़ पर, जहां उन्होंने लगभग छह महीनों तक तन्मयता से काम किया। छह महीने बीतते, न बीतते उनकी यह नौकरी भी चली गई। नौकरी छीनने का कोई कारण उन्हें नहीं बताया गया और इसके साथ ही संजना एक बार फिर से फुटपाथ पर थीं। वही संकट उनके सामने अभी भी मुंह बाये खड़ा था, जो पहले था कि अकेले पति की तनख़्वाह में घर कैसे चलेगा। साथ ही इससे भी बड़ा सवाल ये था कि संजना मानती हैं कि हर महिला को कोई न कोई काम आत्मनिर्भरता के लिए ज़रूर करना चाहिए। सिर्फ़ पैसे कमाना मजबूरी हो सकती है, लेकिन काम करना एक महिला को गौरव और आत्मनिर्भरता देता है। नौकरी जाने के साथ ही इन सवालों के जवाब की तलाश एक बार फिर संजना के सामने थी, जो कि इस बार लंबी चली और 2009 से लेकर 2013 आ गया, लेकिन संजना अपने लिए एक अदद नौकरी तक नहीं जुटा सकीं। यह समय ऐसा था, जब संजना का परिवार भी आर्थिक अभाव सह रहा था और संजना के आत्मनिर्भर होने के सपने भी कहीं भटके हुए थे।

सच है कि रोटी का संकट बड़े से बड़े सपने को निगल जाता है, लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि उजाले की किरण भी तभी फूटती है, जब अंधेरा सबसे ज़्यादा घना होता है। सो डरते-झिझकते हुए संजना तिवारी ने भी एक फ़ैसला ले ही लिया, जो कि उनके मन में एक लंबे अर्से से उमड़-घुमड़ रहा था और वह फ़ैसला था, अपना काम शुरू करने का। संजना की दुनिया और समझ किताबों के इर्द-गिर्द ही थी और अनुभव भी इसी क्षेत्र का था, मगर आर्थिक सामर्थ्य इतनी बड़ी नहीं थी कि इस काम को बहुत बड़े और सुचारू रूप में शुरू किया जा सके। लिहाज़ा संजना कुछ साहित्यिक किताबों के साथ मंडी हाउस फुटपाथ पर ही बैठकर दुकान लगाने लगीं। उनका ऐसा करना जहां लोगों के लिए थोड़ा अजूबा था तो कुछ रिश्तेदारों के लिए शर्मिंदगी की वजह।

अपने परिवार में संजना को अपने बच्चों के साथ-साथ पति राधेश्याम तिवारी जी का भी पूरा-पूरा सहयोग मिला, जो कि ख़ुद लिखने-पढ़ने की दुनिया से ही जुड़े हुए हैं, लेकिन कुछ रिश्तेदारों ने यह तक कहकर ताना मारा कि ब्राह्मण ही बेटी और पत्नी होने के बावजूद इस तरह से सड़क पर दुकान लगाए बैठी हो, कल को तो तुम सब्ज़ी भी बेचने लगोगी, तब तो हम किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे, इसलिए अच्छा है कि तुम किसी को ये न बताना कि तुम हमारी रिश्तेदार हो। यह बात स्वाभिमानी संजना तिवारी के मन में गहरे तक उतर गई और उन्होंने उस समय तो अपने-आप को अपने परिवार तक ही समेट लिया, लेकिन समय ने ऐसी करवट बदली कि आज संजना तिवारी अपने काम की वजह से अच्छी-ख़ासी चर्चा भी बटोर चुकी हैं और सम्मान भी। साथ ही पूरा मंडी हाउस ही जैसे उनका परिवार बन चुका है। वहां आने वाले ज़्यादातर लोग संजना तिवारी को जानते हैं या उनके बारे में जानते हैं। सिर्फ़ इतना ही नहीं, बल्कि संजना को इन लोगों का भरपूर सहयोग भी मिलता है। जब उन्हें कहीं किताबें लेने जाना होता है या कोई और काम होता है तो इन्हीं कलाकारों की भीड़ से आगे आकर कोई इस ज़िम्मेदारी को संभाल लेता है। कला के विद्यार्थी ये बच्चे अब सिर्फ़ मंडी हाउस में आने वाला एक चेहरा ही नहीं रहे हैं, बल्कि संजना के परिवार के सदस्य-सरीखे बन चुके हैं।

कभी कुछेक किताबों से अपना सफ़र शुरू करने वाली संजना के पास आज चार-पांच हज़ार रुपये की किताबें हैं। वे मंडी हाउस में आने वाले किताब प्रेमियों का मिज़ाज समझ चुकी हैं और जानती हैं कि किस तरह की किताबों के दीवाने मंडी हाउस तक खिंचे चले आते हैं। वे किस तरह की किताबें पढ़ना चाहते हैं। यही समझ संजना को एक मामूली पुस्तक विक्रेता नहीं रहने देती। संजना बताती हैं कि कभी वे इसी जगह पर चार-पांच हज़ार रुपये की नौकरी करती थीं और आज सत्तर-पचहत्तर हज़ार रुपये की किताबें हर महीने बेच लेती हैं। पूरा मंडी हाउस ही इनका परिवार बन चुका है, चाहे वे यहां आने वाले कलाकार हों, कलाप्रेमी हों या यहां कलाएं सीख रहे बच्चे। आस-पास के दुकानदारों का भी काफ़ी सहयोग संजना को मिलता है, क्योंकि स्कूटी पर रोज़ इतनी ढेर सारी किताबें लादकर लाना, ले जाना बहुत मुश्किल काम है, पर संजना ने इसी बात को अपना जीवन मान लिया है कि वे आसानियों के लिए तो बनी ही नहीं हैं।

सड़क पर किताबें बेचने पर अक्सर पुलिस वाले भी परेशान करते हैं और वहां से हटाने की कोशिश करते हैं। तब यही सब लोग उनका साथ देते हैं और पुलिस वालों को समझाते-बुझाते हैं। एक महिला होने के नाते भी संजना को कम दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ता, चाहे टॉयलेट जाना हो या स्त्री-संबंधी कोई और दिक्कत। सबसे ज़्यादा दिक्कत तो होती है, आंधी-तूफ़ान और बरसात के दिनों में, जब अक्सर संजना की काफ़ी किताबें ख़राब हो जाती हैं। फिर भी कुछ लोगों के सहयोग से और बाकी अपनी हिम्मत से संजना इन चुनौतियों के सामने डटी हुई हैं।

कुछ ही समय पहले उन्होंने संजना बुक्स के नाम से अपना प्रकाशन भी शुरू कर दिया है और कुछ किताबें भी इसके अंतर्गत प्रकाशित हो चुकी हैं। इन किताबों का विमोचन भी बड़े दिलचस्प अंदाज़ में मंडी हाउस के फुटपाथ पर ही संजना की दुकान पर हुआ था, जिसमें कई जाने-माने रंग निर्देशक, कलाकार, कलाप्रेमी और कला के विद्यार्थी शामिल थे। अब जो सबसे बड़ा सवाल इस वक़्त के हिसाब से उठता है, वह यह है कि ऑनलाइन रीडिंग और सैल के ज़माने में उनकी किताबों की दुकान पर क्या असर पड़ा है तो उसका जवाब संजना की हंसी में छिपा हुआ है। वे बताती हैं कि पहले यह मासिक ख़रीद लगभग चालीस-पैंतालीस हज़ार रुपयों के आस-पास होती थी, जो कि अब बढ़कर सत्तर-पचहत्तर हज़ार रुपये तक पहुंच गई है। ऑनलाइन ख़रीदने-पढ़ने का भी अपना एक क्राउड है, लेकिन किताबों के ढेर से अपनी पसंद की किताबें चुनने, हाथ में लेकर उनके पन्ने पलटने और किताबों के बीच रखे फूलों की ख़ुशबू का आज भी कोई मुक़ाबला नहीं है। यह बात कोई सच्चा पुस्तक प्रेमी ही समझ सकता है।

आज भले ही ये सब एक परिकथा जैसा लगता हो, लेकिन संजना के लिए चुनौतियां अभी देर तक और दूर तक हैं। मुस्कुराते चेहरे के साथ संजना कहती हैं कि आज उन्हें किसी से भी कोई शिकायत नहीं है, बल्कि वे शुक्रिया अदा करती हैं उन दिक्कतों का, जिन्होंने उन्हें बताया कि वे भीतर से कितनी मज़बूत हैं।

आप भी अगर कभी मंडी हाउस जाएं तो संजना तिवारी से ज़रूर मिलिएगा। वे एक स्त्री के हौसले की जीती-जागती मिसाल हैं। संजना तिवारी जैसे लोगों के लिए ही यह शेर इतना सटीक बैठता है-

ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले

ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है...