आदमी की निगाह में औरत
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आदमी की निगाह में औरत

हर साल जब भी अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस आता है तो इससे जुड़े कई सवाल उठ खड़े होते हैं।

आदमी की निगाह में औरत

हर साल जब भी अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस आता है तो इससे जुड़े कई सवाल उठ खड़े होते हैं। हमने भी इस बार इन सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की, लेकिन महिलाओं से नहीं, क्योंकि उन्हें तो ख़ुद ही हज़ारों सवालों के कठघरे में आए दिन खड़ा किया जाता रहा है। हमने ये सवाल किए ऐसे पुरुषों से, जो समाज के विविध क्षेत्रों में अपना सम्मानजनक स्थान और पहचान रखते हैं। तो चलिए, जानते हैं कि एक पुरुष क्या सोचता है महिला दिवस के बारे में और क्या है आदमी की निगाह में औरत। 

    1. यशपाल शर्मा, एक्टर-डायरेक्टर

ये ठीक है कि आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है तो महिलाओं के बारे में, उनकी भलाई के बारे में, उनकी अच्छाई के बारे में बात की जानी चाहिए। फिर भी मैं नहीं मानता कि सिर्फ़ एक दिन है महिलाओं का। मेरा कहने का मतलब है कि अगर सिर्फ़ मदर्स डे पर मदर की रिस्पैक्ट करें, बाकी दिन नहीं या फिर फादर्स डे पर फादर की रिस्पैक्ट करें, बाकी दिन नहीं तो ये चीज़ें तो बेमानी सी लगती हैं। महिलाओं को लेकर मेरा मानना यह है कि सृष्टिकर्ता है महिला। हर इंसान, चाहे वह कोई भी हो, महिला की कोख से ही पैदा होता है। फिर मैं समझ ही नहीं पाता कि कोई भी महिला का अपमान कैसे कर पाता है। मैं नहीं समझ पाता कि कैसे कुछ लोग ये सोच लेते हैं कि उनके परिवार की महिलाएं तो सुरक्षित रहें, लेकिन बाकी महिलाएं उनकी बपौती हैं। वे अपने परिवार की महिलाओं को आदर दें, सम्मान दें और दूसरी महिलाओं की बेइज़्ज़ती करें या उन्हें हल्की निगाह से देखें। मेरी नज़र में ऐसा कर्म तो दूर, ऐसा विचार तक ग़लत है। बड़ी-बड़ी बातें करने से या महिलाओं की भलाई का झंडा उठाने से कुछ नहीं होगा, क्योंकि मैंने ऐसे सैकड़ों लोग हर जगह, हर फील्ड में देखे हैं, जो व्यवहार में  अपने ही विचार के विपरीत होते हैं। बस इतना काफ़ी है कि आप  अपने जीवन से जुड़ी हर महिला का ही नहीं, बल्कि दुनिया की हर महिला का सम्मान कर लीजिए, उनके बारे में अलग से सोचने की ज़रूरत ही ख़त्म हो जाएगी। अपने परिवार के हर लड़के को महिलाओं की रिस्पैक्ट करना सिखाएगी, क्योंकि दुनिया का एक कोना हमारे अपने घर से शुरू होता है।

    2. विश्वजीत प्रधान, बॉलीवुड एक्टर

8 मार्च पर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर सभी को मेरी तरफ़ से शुभकामनाएं। यूं तो हम महिला दिवस हर साल मनाते हैं, फिर भी हमारे देश में, हमारी परंपरा में महिलाओं को देवी का दर्जा दिया गया है। हमारे परिवारों में मां का एक विशेष दर्जा होता है। हमारे परिवार में महिला के हर रूप को सम्मान की दृष्टि से देखा गया है, चाहे वह मां हो, बहन हो, पत्नी हो, बेटी हो, बहू हो और ऐसा अभी भी है, लेकिन समाज के बदलते स्वरूप में, जबकि सभी औरत की समानता और बराबरी की बात कहते हैं तो औरत भी अब पहले की तरह अबला, असहाय नारी नहीं रह गई है। आज की औरत भी कंधे से कंधा मिलाकर अच्छा काम कर रही है। यहां तक कि कई औरतें पुरुषों से ज़्यादा कामयाब हैं, ज़्यादा कमा रही हैं, ज़्यादा शक्तिशाली हैं तो ऐसा नहीं है कि वे महिलाएं कमज़ोर या असहाय हैं। मैं मानता हूं कि औरतें कहीं ज़्यादा मज़बूत होती हैं, क्योंकि मैंने अपनी मां को देखा है, अपनी बहनों को देखा है, अपनी दोस्तों को देखा है, अपने आस-पास देखा है। महिलाओं में असीमित ऊर्जा और शक्ति होती है। मैं तो बस इतना कहना चाहता हूं कि हम सभी पुरुषों के पीछे औरत की ही शक्ति होती है। ख़याल सिर्फ़ इतना ही रहना चाहिए कि वीमेंस डे सिर्फ़ एक दिन न हो। बाकी के 364 दिन भी हमें औरत का सम्मान भुलाना नहीं चाहिए। नारी का महत्व हमें हमेशा अपने ध्यान में रखना चाहिए। यहां बात सिर्फ़ नारी की ही नहीं है। यह पूरा समाज आपसी लेन-देन पर आधारित है। जहां तक सम्मान की बात है तो मर्द को औरत की इज़्ज़त करनी चाहिए और औरत को मर्द की भी करनी चाहिए, क्योंकि मैं देखता हूं कि आज मीडिया में, समाज में कथित आधुनिकता के नाम पर हम उतनी इज़्ज़त नहीं कर रहे हैं एक-दूसरे की। इन दोनों के परस्पर रिश्ते की जो मज़बूती थी, वह इससे प्रभावित हुई है। ऐसा न हो, इस बात का ख़याल दोनों को ही रखना होगा, क्योकिं यह समाज दोनों की ही सहभागिता का नाम है।

    3. डॉ. समीर पारिख, मनोचिकित्सक

मुझे लगता है कि हमें एक ऐसे समाज की तरफ़ जाने की ज़रूरत है, जहां हम जितना जेंडर न्यूट्रन हों, उतना अच्छा रहेगा। वह हमारे लिए, हमारे समाज के लिए ज़रूरी है। जहां पर नियम, अपेक्षाएं, भूमिकाएं, कुछ करने, न करने की पाबंदियां, सही, ग़लत के निर्णय, सामाजिक वर्जनाएं, यह सभी बातें जेंडर की परिभाषा से बाहर आ जानी चाहिए। मुझे लगता है कि जब भी हम इन पर आधारित बात करते हैं, इनकी बात करते हैं तो हम जेंडर पर आधारित बात करते हैं कि महिलाओं में ऐसा होता है, पुरुषों में ऐसा होता है या किसी भी और तरीके से कहने पर भी बात इन्हीं दायरों के इर्द-गिर्द होती है, इसलिए मुझे लगता है कि उस वक़्त हम अपनी एकता, समानता और भेदभाव शून्यता को खो देते हैं। सो मेरा हमेशा से ये मानना रहा है कि सभी एक-दूसरे का सम्मान करें। एक-दूसरे की गरिमा का ख़याल रखें और जो भी जैसा करने चाहे, उसे उसकी आज़ादी हो। अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी सभी के पास हो, कोई भी किसी पर मानसिक रूप से निर्भर न हो और जीवन में यही होना भी चाहिए।

    4. नीलोत्पल मृणाल, लेखक

अगर मैं सिर्फ़ अपनी बात ही कहूं तो मैं तो यह मानता हूं कि हर लड़की को उसके सारे अधिकार बिन मांगे ही मिल जाने चाहिए। हर लड़की का पढ़ना, बढ़ना और लड़ना, उसका जन्मसिद्ध अधिकार होना चाहिए। यह कोई और तय क्यों करें कि एक लड़की का दिन कौन सा हो, उसका जीवन कैसा हो, उसके जीवन का पथ कैसा हो। चाहे एक महिला दिवस हो या फिर साल भर का कोई और दिन, एक लड़की ही अपने से जुड़ा हर फ़ैसला ले और ख़ुद तय करे कि उसे किस रास्ते पर और कैसे चलना है। चाहे उस रास्ते पर चलते हुए वह गिरे, उठेगी भी वह ख़ुद ही। अगर भटकी तो संभलेगी भी फिर ख़ुद ही। हम पुरुषों को चाहिए कि हम औरतों को अपनी दुनिया अपनी मर्ज़ी से बनाने  दें। उसमें  अपने रंग न भरें, चाहे वह एक दिन दिए जाने वाला सम्मान और आदर का रंग ही क्यों न हो। 

    5. पवन अग्रवाल, प्रकाशक

वास्तव में साल के 365 दिनों में से मात्र एक दिन को महिला दिवस के रूप में मनाना किस वर्ष में और क्यों स्थापित किया गया, यह मुझे आज तक समझ नहीं आया। इसके पीछे क्या विशेष कारण रहा होगा, यह मेरी समझ से परे है। क्या कोई ऐसा दिन भी हो सकता है, जिसमें मां, पत्नी, बहन, बेटी या मित्र के रूप में हमारे जीवन में किसी महिला का योगदान न हो। मुझे लगता है कि ऐसा कोई भी दिन नहीं होता, जब किसी भी पुरुष के जीवन में कोई महिला किसी रूप में उपस्थित न हो। सच कहें तो हम सभी के जन्म से लेकर अंतिम क्षण तक किसी न किसी महिला का योगदान हमसे जुड़ा रहता है। हमारे शास्त्रों तक में यह बात निहित है कि शिव शक्ति ही हैं, शक्ति के बिना शिव, शव समान ही रह जाते हैं। हर मानव के जीवन में यही बात इसी रूप में सम्मिलित है। आज की महिला हो या पुरातन काल की महिला, सदैव से ही शक्तिशाली रही हैं और आज भी हैं। ऐसे में उनके सशक्तीकरण होने का क्या कोई प्रश्न वास्तव में उठता है, क्या महिलाएं शक्तिशाली नहीं हैं, जो इस एक दिन उनके शक्तिशाली होने की बात कही जाती है और एक दिन को ही मनाया जाता है। मेरी नज़र में हर दिन महिलाओं का ही दिन है। मेरे जीवन में महिलाओं का विशेष योगदान रहा है, पहले मेरी जननी के रूप में, फिर मेरी प्यारी दोनों बहनों के रूप में, उसके बाद मेरी पत्नी के रूप में और उसके बाद अब मेरी प्यारी बिटिया के रूप में। मेरे जीवन के सारे रंग इन्हीं रिश्तों के दिए हुए हैं।  

    6. भरत तिवारी, डिज़ाइनर, फोटोग्राफर, शब्दांकन संपादक

ये तो एक ऐसा विषय है, जिस पर बहुत देर तक और बहुत कुछ कहा जा सकता है, लेकिन बात से ज़्यादा असर व्यवहार का होता है। असल जीवन में पूरे वर्ष भर किया गया व्यवहार ही यह बात तय करता है कि वास्तव में महिलाओं को एक भी दिन विशेष रूप से दिए जाने को हम ज़रूरी मानते हैं या फिर यह सिर्फ़ एक दिन का दिन-विशेष भी है और एक दिन के आदर-सत्कार का दिन भी। बाकी दिन हम क्या सोच रखते हैं, यह हमारे समाज में साफ़ दिखता है। सो मैं तो कहता हूं कि ऊपर तो हर दिन से उठना चाहिए, मगर बाकी दिन भी पतन के तो नहीं होने चाहिए। यह समाज स्त्री और पुरुष दोनों की सहभागिता से चलता है, लेकिन सवाल आज भी स्त्री से जुड़े सरोकारों का ही उठता है, क्योंकि उसकी ज़रूरत सही मायनों में और बहुत गहरी है। मैं महिलाओं के लिए एक ऐसी दुनिया की कामना करता हूं, जहां हर दिन मनुष्यता का दिन हो, सभी के लिए समान रूप से आदरणीय हो, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष। चलिए, शुरुआत एक दिन से तो करें। महिलाओं को पुरुषों से अलग समझने की सोच समाज को सभ्य नहीं बनने दे सकती। जिस दिन हम इस आत्म-विनाशक सोच से मुक्ति पा लेंगे, सही मायनों में इंसान बन जाएंगे।

    7. डॉ. सुशील उपाध्याय, लेखक एवं शिक्षाविद्
 

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस उन प्रश्नों को बहुत स्पष्ट रूप से याद दिलाता है, जिनके उत्तर अभी तलाशे जाने हैं या जो उत्तर अभी तक तलाशे जा चुके हैं, वे अधूरे हैं। सवाल यह है कि क्या महिलाओं को वैश्विक स्तर पर और भारत में भी वे सारे अधिकार, निर्णय लेने की क्षमता प्राप्त हो गई है, जो कि पुरुषों को सहज रूप से प्राप्त है। दूसरा प्रश्न यह है कि क्या महिलाओं की आज़ादी, उनकी बराबरी कोई दिखावटी या सजावटी चीज़ है या इसमें कोई ठोस तत्त्व भी मौजूद है। कई बार स्त्री अधिकारों को या उनकी समानता को हम यह मान लेते हैं कि उन्हें भी पुरुषों जैसा बन जाना चाहिए। यह सोच ठीक नहीं है, क्योंकि योग्यता या काबिलियत हमेशा ही एक सापेक्षिक तत्त्व है, यानी हर व्यक्ति की क्षमता और योग्यता को किसी एक समान पैमाने पर परखा और तौला नहीं जा सकता। यह बात स्त्री और पुरुष की क्षमता और योग्यता पर भी समान रूप से लागू होती है। यह दिन विशेष रूप से यह भी याद दिलाता है कि स्त्री और पुरुष के संबंधों में एक जटिलता का तत्त्व भी हमेशा से ही रहा है। यह बात इस ओर भी संकेत करती है कि बाज़ार महिला को भी एक प्रॉडक्ट की तरह बरत रहा है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस ऐसे बहुत सारे ज्वलंत प्रश्नों को खंगालने का मौका भी होता है। 

    8. शैलेश गिरि, पब्लिक रिलेशन अधिकारी

मेरी नजर में स्त्री का समाज में बहुत महत्व है। सबसे पहले मैं अपनी मां (जानकी गिरि) के बारे में बताता हूंस जिन्होंने मेरे अंदर अच्छे संस्कार डालें, जिनकी वजह से मेरे अंदर औरतों के प्रति इज्जत और सम्मान की भावना आई। उसके बाद जीवन में पत्नी (उषा मिश्रा) आती हैं, जिसने मुझे आगे बढ़ने में मदद की। मेरी पत्नी केमिस्ट्री से एमएससी हैं। दिल्ली में उन्हें स्वतंत्र रूप से जॉब ऑफर भी मिल गया था और इधर मेरा काम बढ़ रहा था। मुझे विश्वसनीय, समर्पित और काबिल लोगों की जरूरत थी। ऐसे में जब पत्नी को पता चला तो उन्होंने अपना करियर छोड़कर मेरे काम को आगे बढ़ाने की ठानी। हर कदम पर मेरा साथ दिया। इतना ही नहीं हमारे ऑफिस में काम करने वाली लड़कियों की सुरक्षा, सुविधा, सम्मान और अन्य ज़िम्मेदारियों का भी हमेशा ख़याल रखा। रात के इवेंट में लड़कियों को हम लोग नहीं भेजते थे, क्योंकि हमें लगता था की रात में लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं, लेकिन मेरे सोच को मेरी पत्नी और मेरे स्टाफ की लड़कियों ने ही सही नहीं बताया। उनका मानना था कि किसी लड़की का जीवन कैसा हो, यह फ़ैसला उसका अपना होना चाहिए, न कि  पाबंदियों या डर में बंधा हुआ, क्योंकि इस हाल में तो लड़कियां अपने घर में ही आज सुरक्षित हैं, यह बात भी सवालों के घेरे में आ जाती है। लड़कियों को कभी कमजोर नहीं समझना चाहिए, बल्कि हर जगह बराबरी का दर्जा देना चाहिए।  

    9. हिमांशु बी. जोशी, रंगकर्मी

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर एक रंगकर्मी होने के नाते मुझे यह कहना है कि अब हमें ग्रिटिंग कार्ड्स और कोरी बधाई देने के इतर, ज़मीनी स्तर पर भी महिलाओं को साथ लेकर चलना होगा। उन्हें उचित सम्मान देना होगा, हर मोर्चे पर, हर काम में उनका सहयोग करना होगा। चाहे वह घरेलू हो या बाहरी। आपसी संबंधों को मिलकर मज़बूत बनाना होगा और एक अपील करनी होगी कि महिलाओं का हर तरह का शोषण बंद हो और अपनी आदर्शवादी सोच को अपने निजी जीवन में भी उतारना होगा। महिलाएं किसी भी रूप में किसी से भी कमतर नहीं हैं। 

    10. आशीष शुक्ला, सामाजिक कार्यकर्ता

मैं तो अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की सबसे पहले सभी को हार्दिक बधाइयां देना चाहूंगा। यह दिन इसलिए भी विशेष है कि अगर मैं अपने देश भारत की ही बात करूं तो महिलाओं की जो स्थिति है, जिस तरह से महिलाएं संघर्ष कर रही हैं, अपने स्पेस के लिए लड़ रही हैं, ऐसे में इस तरह का दिन सेलिब्रेट करना, मनाया जाना इस संघर्ष की आगे की तैयारी के लिए बहुत ज़रूरी है। इस दिन हम अपने आपको, सभी महिलाओं को, सभी पुरुषों को जाग्रत कर सकें और वे अपने अधिकारों के लिए आगे जा सकें। बात आती है कि एक दिन से क्या फ़र्क पड़ेगा, मुझे लगता है कि एक दिन से बहुत फ़र्क पड़ेगा, क्योंकि जब आप कुंआ खोदना शुरू करते हैं तो वह एक दिन में नहीं होता है। एक दिन में आप पानी तक नहीं पहुंच पाते हैं। कई दिन लगते हैं और कई सारे लोग लगते हैं, तब जाकर आप अपने प्रयास की सफलता तक पहुंच पाते हैं। एक दिन भी बहुत महत्वपूर्ण होता है किसी भी चीज़ की शुरुआत के लिए, किसी भी चीज़ को पाने के लिए और किसी भी चीज़ को आगे ले जाने के लिए। तो मुझे लगता है कि आने वाले संघर्षों को समझने के लिए और उनको कम करने के लिए इस दिन को बहुत उत्साह के साथ मनाया जाना चाहिए।   

    11.  सैफ़ असलम ख़ान, इलैस्ट्रेटर एवं डूडल आर्टिस्ट

दुनिया की सारी महिलाओं को आज उनके ख़ास दिन के मौक़े पर पूरी इज़्ज़त के साथ, दिल से सलाम करते हुए मुबारक़बाद देना चाहूंगा। ख़ासकर उन महिलाओं को, जो इस दुनिया में पैदा तो हुई हैं नारी के रूप में, लेकिन अपनी लगन, अपनी मेहनत, औरों से अलग कुछ करने की चाह रखने और इस जुनून के दम पर उन्होंने अपनी एक अलग ही पहचान बनाई है। आज वे सब पुरुषों के बराबर ही नहीं, बल्कि बहुत सारी फील्ड में पुरुषों से भी बहुत आगे हैं। हमें अपने घर की महिलाओं के साथ-साथ ऐसी सभी महिलाओं की इज़्ज़त करनी चाहिए, उनकी क़द्र करनी चाहिए। यहां पर एक बात और कहना चाहूंगा कि हमें महिलाओं का सम्मान सिर्फ़ इसीलिए नहीं करना चाहिए कि वे केवल महिला हैं। हमें यह भी समझना होगा कि वह महिला, जो कि एक मां भी है, बहन भी है, पत्नी भी है, बेटी भी है, प्रेमिका या दोस्त भी है। हम अगर ग़ौर करें तो हमारे जीवन में केवल किसी एक ही महिला का नहीं, बल्कि बहुत सारी महिलाओं का योगदान होता है। मैं जो इस तरह की बातें कर पा रहा हूं, उसके पीछे भी एक मां के रूप में एक महिला का ही हाथ है। कहा भी जाता है कि हर बच्चे की पहली टीचर उसकी मां ही होती है। मुझे यह भी लगता है कि कोई भी बदलाव हो या कोई भी पहल हो, हर व्यक्ति को अपने घर से ही शुरू करनी चाहिए। एक और बात कहना चाहूंगा कि कुछ दिन ऐसे होते हैं, जो मनाए  तो एक ख़ास रूप में और ख़ास दिन को ही हैं, लेकिन उससे जुड़ी मान्यताओं को, उसकी विशेषताओं को हमें अपने जीवन में हमेशा के ले उतार लेना चाहिए। मेरे लिए महिला दिवस भी ऐसा ही एक दिन है।