चिट्ठियों से आती ख़ुशबू फोन में कहां!

By : Damini Yadav
Oct 09, 2021

World Postal Day: पूरी दुनिया में 9 अक्टूबर को 'वर्ल्ड पोस्टल डे', यानी 'विश्व डाक दिवस' के रूप में मनाया जाता है। अब फोन, एसएमएस, वॉट्सएप, इमेल के ज़माने में चिट्ठियां लिखना-पढ़ना किसी बीते वक़्त की बात लगती है। फिर भी ज़िक्र ख़तों-चिट्ठियों का आए और बीती यादें ताज़ा न हो जाएं, ऐसा तो हो ही नहीं सकता!

सबसे पहले करते हैं उस अवसर से जुड़ी कुछ बातें, जो आज के दिन की ख़ासियत है, यानी कि विश्व डाक दिवस की विशेषता। दरअसल, आज के ही दिन सन 1874 को स्विटज़रलैंड के बर्न में यूनियन पोस्टल यूनियन की स्थापना हुई थी। भारत को इसकी सदस्यता 1 जुलाई, 1876 को मिली थी। ख़ास बात यह है कि भारत पहला एशियायी देश था, जिसे इसकी सदस्यता मिली थी। एक अनुमान के मुताबिक, पूरी दुनिया में आज के ज़माने में भी लगभग 82 प्रतिशत आबादी को घर बैठे पोस्टल सर्विस का लाभ मिलता है। हालांकि फोन और इमेल ने संचार के तौर-तरीके लगभग पूरी तरह से बदल कर रख दिए हैं। यहां तक कि अगर आपसी बातचीत या संपर्क का मामला हो तो भी लोग अब ख़तो-किताबत की बजाय फोन या वॉट्सएप मैसेज कर देना ज़्यादा आसान समझते हैं।

फिर भी यादों के जो ख़ज़ाने चिट्ठियों के साथ जुड़े हुए थे, वह बात फोन या मैसेज में कहां! आज भी अगर किसी पुराने से लिफ़ाफ़े में, कोई पुरानी सी चिट्ठी मिल जाए तो बरसों पहले बीत चुका वह वक़्त और उससे जुड़ी याद ताज़ा हो उठती है। न जाने कितने ही बीते लम्हे आंखों के सामने से गुज़र जाते हैं। उन चिट्ठियों को छूकर उनकी ख़ूशबू में जैसे हम पुराने वक़्त को एक बार फिर से याद कर रहे हों।

Credit: CitySpidey

ऐसा नहीं है कि ख़तों से सिर्फ़ यादों के ख़ज़ाने जुड़े होते हैं, बल्कि इनमें कई ऐतिहासिक दस्तावेज़ तक शामिल होते हैं, जैसेकि अब्राहिम लिंकन द्वारा अपने बेटे को स्कूल भेजने के पहले दिन स्कूल की प्रिंसीपल के नाम लिखा गया ख़त, पंडित जवाहरलाल नेहरू के जेल से ही अपनी बेटी इंदिरा को लिखे गए ख़त, महात्मा गांधी द्वारा लिखे कई ख़त, शहीद भगतसिंह द्वारा अपने माता-पिता को लिखे गए ख़त। इसी तरह से और भी कई महान और चर्चित व्यक्तित्वों द्वारा लिखे गए पत्रों में उस समय की झलक भी मिलती है। उस समय की ऐतिहासिक घटनाओं का ब्यौरा मिलता है, जो एक अहम दस्तावेज़ की तरह संभले हुए हैं। 

अगर मैं ख़ुद अपनी बात करूं तो आज जो भी लिखने-पढ़ने की सलाहियत मुझ में है, उसकी शुरुआत चिट्ठियां लिखने से हुई थी। जब मेरे बाबूजी हमारे रिश्तेदारों, परिचितों को चिट्ठी लिखा करते थे तो वे आख़िर में एक पन्ना मेरे लिए छोड़ दिया करते थे कि मैं भी उस पर कुछ लिखा करूं। उस वक़्त मैं शायद दूसरी या तीसरी क्लास में पढ़ा करती थी। तब ये तो समझ में आता ही नहीं था कि क्या लिखूं, सो कभी स्कूल की ही कोई कविता या प्रार्थना लिख देती, कभी कोई दूसरा सबक, कभी कुछ टूटे-फूटे शब्दों में अपनी कोई फ़र्माइश या फिर घर की कोई बात। 

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यहां से मुझे धीरे-धीरे अपने भावों को शब्द देना आया। मैं अपने मन की बातों को शब्द देना सीखने लगी। फिर कुछ अरसे बाद मैंने ख़ुद ही अपने रिश्तेदारों, परिचितों, दोस्तों, यहां तक कि बाबूजी के बाहर जाने पर उन्हें तक चिट्ठी लिखने की शुरुआत कर दी। एक पन्ने से बढ़ते-बढ़ते ये चिट्ठियां कब दस-बारह पेजेस तक होने लगीं, पता ही नहीं चला।

आज ये बात जानकर अजीब लगता है कि इतनी लंबी चिट्ठी लिखता कौन है और इन्हें पढ़ता कौन होगा। हैरानी की बात है, मगर ये सच है कि तब लिखने वालों के पास इतनी लंबी चिट्ठियां लिखने का वक़्त भी होता था और पढ़ने वालों के पास भी। तब चिट्ठियों में सिर्फ़ एक-दूसरे की ख़ैरियत ही नहीं पूछी जाती थी, बल्कि दिलों के हाल भी बयान होते थे। जो बातें लोग सामने नहीं कह पाते थे, ख़तों में लिख दिया करते थे। जाने कितनी ही मुहब्बतों की शुरुआत एक काग़ज़ पर लिखी इबारत से हुई होगी। शायद कितनों के पास आज भी कोई ऐसा ख़त कहीं किसी कोने में संभालकर रखा हुआ होगा।

आज भी अक्सर मुझे ख़त लिखना अच्छा लगता है। हालांकि मैं फोन पर लगातार अपने सभी दोस्तों, रिश्तेदारों, परिचितों के संपर्क में रहती हूं। फिर भी जाने क्या जादू होता है एक काग़ज़ पर लिखे शब्दों में कि वह बात कभी फोन या मैसेज करते हुए महसूस ही नहीं हुई। बहुत ख़ुशी होती है ये देखकर कि आज भी मेरी जाने कितनी ही चिट्ठियां मेरे दोस्तों और रिश्तेदारों ने संभाल कर रखी हुई हैं और अक्सर उन्हें पढ़कर मुस्कुराते हुए मुझे बताते हैं। 

चाहे संचार के तौर-तरीके कितने भी बदल जाएं, चाहे ज़माना कहीं से कहीं गुज़र जाए, चिट्ठियों के काग़ज़ पुराने पड़कर चाहे पीले भी पड़ जाएं, लेकिन उनके रंग कभी बदरंग नहीं हो सकते।

चिट्ठियों में मेरी उंगलियां उकेर देती हैं वे नाम
जिनसे मिलता है मेरी ज़िंदगी को एक मुक़ाम, एक अंजाम...