एक प्याला याद भरा
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एक प्याला याद भरा

कॉफी जीवन के विभिन्न चरणों में एक विशेष भूमिका निभाती है।

एक प्याला याद भरा

आज जब अपनी पहली कॉफी का पहला सिप याद करती हूं तो  चेहरे पर जो मुस्कुराहट उभरती है, वह नटखट-अल्हड़ उम्र से लेकर संजीदा उम्र तक के सफ़र की याद एक बार में ही तय करा देती है।

जब पहली बार कॉफी का घूंट लिया था, तब तक बॉर्नवीटा पीने की आदत छूटी नहीं थी। तब कॉफी पीने की वजह ये थी कि सुन लिया था कि कॉफी पीने से नींद नहीं आती, चुस्ती-फुर्ती बनी रहती है, थकान का नामोनिशान तक नहीं मिलता है। बस फिर क्या था, एग्ज़ाम की रात कॉफी पी के तैयारी करने का मन बना लिया। रंगत कॉफी की भी कुछ-कुछ बॉर्नवीटा जैसी ही लगी थी तो पहले से ही सोच लिया कि स्वाद भी शायद वैसा ही मिठास भरा हो। ऐसा सोच लेने में उम्र के उस पड़ाव का भी हाथ था, क्योंकि तब तक मासूमियत भरी भोली मिठास बाकी थी, लेकिन कॉफी की वह पहली कड़वाहट मुझे आज तक याद है। 

फिर वक़्त के साथ कॉफी का पहला कड़वा ज़ायका कब उम्र और अनुभव की मिठास में बदलता चला गया, पता ही नहीं चला। तब जाना कि कैसे ज़िंदगी अपनी उम्र और पड़ाव के साथ-साथ कड़वाहट और मिठास जैसे शब्दों के अर्थ बदलकर रख देती है।
जब टीनएज थी तो कॉफी का मतलब होता था, दोस्तों के साथ मस्ती, घूमना-फिरना, उम्र और फ़ितरत का बेफ़िक्र खिलंदड़ापन।

Credits: CitySpidey

फिर एक प्याला कॉफी पीने चलने के ऑफर की याद से नज़रें झुक जाने की उम्र आई, क्योंकि तब एक प्याले में कॉफी के साथ-साथ किसी की मुहब्बत भी छलछलाती नज़र आती थी। सो ज़ाहिर है कि नज़रें शर्म से बोझिल होकर ख़ुद ब ख़ुद झुक जाती थीं।
यादों के कारवां में फिर जुड़ जाता है, किसी कैफेटेरिया में अकेले पी गई कॉफी का प्याला, जिसके साथ जुड़ी हुई थी एक औरत के तौर पर मेरी आर्थिक आत्मनिर्भरता, अपने फ़ैसले ख़ुद करने की आज़ादी, अपने दम पर जुटाई हुई पहचान और इसी दम पर पाया आत्मविश्वास। 

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इस पड़ाव पर पहुंचने के बाद मैं जब लोगों से एक प्याला कॉफी पर मीटिंग करती थी तो उसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरा वजूद होता था, एक स्त्री के रूप में मेरा स्वतंत्र अस्तित्व।

यहां तक कि तब अगर मैं अपनी किसी दोस्त से भी कॉफी के लिए मिलती, तब साथ में एक सुकून ये भी होता था कि आने से पहले मुझे किसी से पूछना नहीं पड़ा है और जाने के बाद किसी को सफ़ाई नहीं देनी है कि कॉफी पीते हुए दोस्त के साथ गप्पें मारने में इतनी देर क्यों हो गई।

अब जब उम्र की सांझ में सीनियर सिटीज़ंस को कॉफी के प्याले के साथ-साथ ज़ोरदार ठहाके लगाते देखती हूं तो बरबस ही इस ख़याल से भर जाती हूं कि अब कॉफी के प्याले को थामे हुए इन हाथों ने अपनी हर ज़िम्मेदारी पूरी कर ली है। ये हर फ़िक्र से आज़ाद हैं। जानते हैं कि ज़िंदगी के प्याले में अब उम्र थोड़ी ही बची है, लेकिन कॉफी के आख़िरी घूंट के ज़ायके की तरह, ज़िंदगी का भी हर घूंट कड़वाहटों में छिपी मिठास को तलाशने का नाम है। सो अब तो बस इतना ही कहूंगी कि हो जाए एक प्याला कॉफी?

हैप्पी इंटरनेशनल कॉफी डे!
 



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