गांधीवाद से गांधीगिरी तक
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गांधीवाद से गांधीगिरी तक

2 अक्टूबर का दिन कई अर्थों में ख़ास है, लेकिन बतौर इंसान इसका मेरी ज़िंदगी पर क्या असर पड़ा है

गांधीवाद से गांधीगिरी तक

पहली अक्टूबर को ‘वर्ल्ड स्माइल डे’ मनाने के अगले ही दिन, यानी 2 अक्टूबर को जब गांधी जयंती, लालबहादुर शास्त्री जयंती और अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस एक साथ आ गए तो मुझे लगा कि ये क्रम थोड़ा उल्टा हो गया है। ‘वर्ल्ड स्माइल डे’ को तो कायदे से असल में इन तीन-तीन विशेष अवसरों के बाद आना चाहिए था। गांधी जयंती, शास्त्री जयंती और अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस मेरे लिए और हैं क्या, सिवाय इस एहसास के कि ये दिन मानव के महामानव बनने की गाथा से जुड़े हैं। 
कैसे सच्चाई, ईमानदारी, सादगी, दृढ़निश्चय, आत्मविश्वास, कर्मठता और देशप्रेम जैसे गुण मिलकर एक ‘गांधी’ को ‘महात्मा’ बना देते हैं, एक लालबहादुर ‘श्रीवास्तव’ अपने ज्ञान से जाति-पाति से ऊपर उठकर सिर्फ़ अपनी शिक्षा और सामर्थ्य के दम पर पाई पहचान से ‘शास्त्री’ बन जाता है और कैसे अहिंसा के जिस मंत्र ने भारत की आज़ादी की लड़ाई को पूरी दुनिया में एक अनोखे संग्राम की विशिष्ठता प्रदान की थी कि बिना ख़ून बहाए भी अहिंसा के दम पर अपना हक़ हासिल किया जा सकता है। 
यहां यह बताते चलें कि लालबहादुर शास्त्री जी ने जब अपनी बीए की पढ़ाई पूरी करके ‘शास्त्री’ की उपाधि पा ली थी तो उन्होंने अपने जातिसूचक नाम ‘श्रीवास्तव’ को अपनी शिक्षा के दम पर पाई पहचान शास्त्री से बदल दिया था और फिर ज़िंदगी भर इसी नाम से पहचाने गए थे, क्योंकि वे जाति-पाति से ऊपर उठकर दुनिया-समाज को देखना सीख चुके थे। सच्ची शिक्षा का मतलब भी तो यही होता है न!
अगर यहां मैं बिल्कुल एक सामान्य नज़रिये से देखूं तो मेरे लिए भी ये सवाल आसान नहीं है कि गांधीवाद से जुड़े इन गुणों की भला मेरे जीवन में क्या जगह हो सकती है। 2 अक्टूबर को सिवाय छुट्टी मनाने के बजाय और क्यों याद रखा जाए तो ये सवाल मुझे कुछ देर के लिए ख़ामोश कर देता है। 
गांधी जी और शास्त्री जी जैसे महान लोगों के जीवन आज के समय में मुझे किसी कल्पना जैसे लगते हैं, क्योंकि मैं तो आज हर तरफ़ ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाली ‘दादागिरी’ का ज़ोर देख रही हूं। सीधे-सादे, सादगी भरे इंसान को अब लोग आदर्श नहीं, बेवकूफ़ कहते हैं। अहिंसा के नाम पर जब एक गाल पर चांटा पड़े तो दूसरा गाल आगे कर देने की बजाय मारने वाले का हाथ तोड़ देने जैसी घटनाएं ही देश-समाज का सच बन जाएं तो मैं कैसे और किस आधार पर यकीन करूं कि गांधी और शास्त्री जैसे लोग सचमुच कभी इस धरती पर हुए थे और ये कोई कोरी कल्पना नहीं है। 
तब तुरंत कोई जवाब नहीं मिलता  है। बस ज़ेहन में इन दोनों महान व्यक्तित्वों के चेहरे ही आ-जा रहे थे, कोई जवाब नहीं। जवाब चाहिए भी तो अपने-आप से ही था कि मैं किसी दूसरे की बात क्यों करूं, गांधी-शास्त्री जी जैसे लोगों ने मेरे जीवन पर क्या असर डाला। मैं आज इन्हें क्यों याद रखूं। 
फिर एहसास होता है कि इन्हें सही मायने में याद रखने की ज़रूरत आज ही तो है। सच कहूं तो इससे ज़्यादा तो कुछ नहीं, मगर एक इंसान के रूप में थोड़ा और बेहतर बनने का रास्ता ज़रूर दिख जाता है। 
जब भी कभी किसी दोराहे पर सच बोल देती हूं तो झूठ के लिए की जाने वाली एक लंबी जद्दोजेहद से बच जाती हूं। झूठ के लिए तो बहुत कोशिश करनी पड़ती है। झूठ को सच साबित करने के लिए बहुत सबूत जुटाने पड़ते हैं, लेकिन सच अपना सबूत ख़ुद होता है और सच बोल देने के बाद वाली मन की शांति, अपने प्रति सम्मान और आत्मविश्वास, उसे बताने के लिए तो शब्द ही नहीं हैं।
सादगी से अब बाज़ार का मायाजाल लुभाता नहीं है। ज़िंदगी थोड़े में भी बहुत लगती है। फिर कोरोना-काल ने तो इसी को सच भी कर दिखाया। जब हम सभी घरों में बंद थे और ज़िंदगी की आपाधापी थमी हुई थी। हमारे पास सब-कुछ होते हुए भी काम सिर्फ़ उतने में ही चल रहा था, जितना ज़रूरी था। तब ये सोचने का भरपूर समय मिला था कि असल में क्या और कितना ज़रूरी होता है। ज़रूरत और लालच के बीच का फ़र्क आसानी से समझ में आ गया।
रास्ते चलते कितने ही लोग या गाड़ियां आपस में टकरा जाते हैं और नौबत हाथापाई से होते-होते एक-दूसरे के खून के प्यासे होने तक पहुंच जाती है। ऐसे में अगर उस टकराहट को एक मुस्कुराहट से और माफ़ कर देने या माफ़ी मांग लेने भर से ही पूरा कर लें तो न हाथ उठाने की नौबत आएगी, न किसी के हाथ जोड़ने की। इतनी सी बात ने गुस्से से बचने का एक बेहतरीन टिप्स बनने का काम किया और मेरे दुश्मनों की संख्या कम होकर, दोस्तों की संख्या बढ़ने लगी। 
अगर मुन्नाभाई सिर्फ़ एक ‘जादू की झप्पी’ से बॉक्स ऑफिस पर सुपर-डुपर हिट हो सकता है तो गांधीवाद न सही, गांधीगिरी तक तो हम भी पहुंचने की कोशिश कर ही सकते हैं। 
भले ही गांधी जी सिर्फ़ नोट पर अच्छे लगते हों और शास्त्री जी की सादगी के नाम पर सिर्फ़ खादी ही याद आती हो, पर सिर्फ़ अपने दिलोदिमाग़ की शांति और सुकून के लिए हम आज की दादागिरी के बजाय, कल की गांधीगिरी को तो चुन ही सकते हैं। हां, ये आसान बिल्कुल नहीं है, मगर ये किसने कहां कि हम आसानियों के लिए बने हैं।
गांधी जयंती, शास्त्री जयंती और अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!