Gaandhari- Ek Kavita
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Gaandhari- Ek Kavita

जी करता है इतिहास की छाती फाड़ समय का अभिमान चीर चिंदी-चिंदी करते हुए अतीत को पहुँच जाऊँ तुम तक

Gaandhari- Ek Kavita

The following poem has been penned by Shashi Sehgal. Shashi is an author and translator who lives in Rajouri Garden In Delhi. 

Shashi Sehgal
Credit: Supplied

गांधारी एक

नहीं जानती कि मैं तुम्हें कितना जानती हूँ
कसमें खाने की भी उम्र नहीं मेरी
और ना ही तुम्हारी
फ़िर भी तुम्हें किसी मुसीबत में फँसा देख
खुद को अलग नहीं कर पाती तुमसे
शायद इसी कारण कभी कहा था तुमने
"क्यों गांधारी बन जाती तो तुम"
जाने कैसा जादू था इस बात में
गांधारी शब्द की मूल्यधर्मिता में।

मैंने तो नहीं बाँधी पट्टी
पर पट्टी क्या सिर्फ़ आँख पर ही बँधती है?
आज मैंने उतार फैंकी है 
गांधारी नाम से चिपकी उसकी वह पट्टी
जो शायद उसे
धृतराष्ट्र से जोड़ती और तोड़ती रही होगी।

मैं नहीं हूँ गांधारी
यह विशेषण अब उपहासास्पद हो गया है
                

लेकिन इसका यह मतलब नहीं 
कि मैं अब कुंती बनना चाहती हूँ
मैं स्वनाम के साथ
जीती हूँ पूरे स्वाभिमान के साथ।

                 

गांधारी-दो
गांधारी! होगी तुम पतिव्रता
पर एक बात जान लो
आँखों पर पट्टी बाँध लेने से
नहीं चलता पति का अता-पता।
अनेक दासियों के महल में
जब इधर-उधर दीवारों से टकराते होंगे धृतराष्ट्र
तब
राजा को सहारा देने के बहाने
बढ़ जाते होंगे कुछ हाथ
और तुम
अपनी पट्टी की गरिमा में
खुद को महासती के गौरव-भार तले
दबती, ज़रूर महसूसती होगी
क्यों बाँधी थी तुमने उस क्षण
आँखों पर पातिव्रत्य की पट्टी
सच बतलाना
क्या यह प्रतिशोध था?
उस धृतराष्ट्र को तिल-तिल गलाने का
या

गौरव से मंडित हो
मान और मर्यादा के पद पर आसीन होने का।
कुछ भी हो गांधारी
मैं नहीं हो पायी अभिभूत
तुम्हारे इस महासती रूप से
न कल, और नाही आज।
अरे, मेरा मन तो तुम्हें श्राप देने का होता है
करोड़ों अज्ञानी और मूढ़ नारियों को
अपने इसी आदर्श के तले दबा दिया तूने।
क्या मिला तुम्हें गांधारी?
जो अपनी व्यक्तिगत पीड़ा का बदला
समूची नारी-जाति से लिया।
आज हर अँधा या नयनसुख पति
यही चाहता है
कि उसकी गांधारी
आँखों से पट्टी कभी न उतारे।

गांधारी-तीन

गांधारी की पीड़ा को
नहीं समझा समाज ने
उसे महासती के फ्रेम में जड़ 
जड़ होकर पूजा है सभी ने।

यौवन का सुनहला सपना
प्रियतम की आँखों में
अपने प्रति उमड़ता प्यार
सब, सपना बनकर ही रह गया।

गांधारी!
कैसे जिया होगा तुमने?
एक ही जन्म में यह सब
कई-कई बार मृत और पुनर्जीवित हुई होगी।
ज़िंदगी के कुटिल हादसे
पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक त्रासदियाँ
भोगने को बाध्य
उबाऊ और नीरस-नीरस ज़िंदगी
स्थितियों का अँधा प्रभाव
हर नया दृश्य

बड़ा स्याह धब्बा
कोई आकार ग्रहण न कर पाने की पीड़ा
सच में गांधारी
तुम धन्य हो।

जी करता है
इतिहास की छाती फाड़
समय का अभिमान चीर
चिंदी-चिंदी करते हुए अतीत को
उलटे वेग की गति से
पहुँच जाऊँ तुम तक
तुम्हारा हाथ पकड़
पी जाऊँ उस स्पर्श को
और एक एकटक देखूँ
तुम्हारे व्यक्तित्त्व को
कह नहीं सकती
उस क्षण मैं तुम्हारे चरणों पर गिर पड़ूँगी
या, खोल दूँगी तुम्हारी पट्टी
जो कभी प्रतिशोध के लिए बाँधी थी तुमने
चाहती हूँ
उस समय

धृतराष्ट्र भी वहीं हों
और सुनें वह इतिहास
जिसे लम्हों ने
झुर्रियों की लिपि में लिखा होगा
गांधारी!
बात करो मुझसे
दूर मत जाओ।

गांधारी-चार

मैं गांधारी
घुटती रही सालों-साल
होती गई तार-तार
कितना सहा है मैंने
पातिव्रत्य का दायित्त्व ओढ़कर
छला है सभी को
अपने तथाकथित निश्छल रूप से।

पर वह ऐसा क्या था?
जिसने रोका मुझे पट्टी खोलने से
जिन हाथों से बाँधी थी पट्टी
वही हाथ खोल भी तो सकत थे।
कैसी मृगतृष्णा के वशीभूत
हो गई थी मैं उस क्षण।
मन के किसी कोने में
महिमा की भूख
धकेलती गई मुझे अँधी गहराइयों में
मैं तो पागल थी
क्रोध और अपमान की आग में छली
जग से बदला लेने के लिए

घिरती गई मैं उन काली परछाइयों में
जो आँख बंद होने पर
और भी भयावह हो उठती हैं।

भीष्म बुज़ुर्ग थे और द्रोणाचार्य गुरू
सभी का पुत्रीवत अधिकार था मुझ पर
उन्होंने भी आजन्म
इस अँधेरी आग में जलने को छोड़ दिया
वे डाँटकर, खींचकर
अगर खोल देते पट्टी
तो महाभारत
महान भारत में बदल जाता।

भीष्म के परपीड़क होने का
सबसे पुख़्ता प्रमाण है यह
अपने समान मुझे
सुखों से वंचित होते देख
उफ़ तक न की।
पुष्प-वर्षा करती
जय-जयकार से गूँजती दिशाएँ
मेरे अँधेरे भविष्य पर
हाहाकार का अट्टहास करती रहीं
और
भीष्म को अपने दुख का
एक साथी मिल गया।

 

गांधारी-पाँच

गांधारी!
आज सदियों बाद
फ़िर तुम याद आई हो
पता नहीं क्या है तुममें
जो बार-बार ले जाता है मुझे
तुम्हारे पास।

प्रकाश से अँधकार में जा
वर्षों घुटती रही तुम
यह कैसा प्रेम था?
प्रेम या प्रतिशोध
वंचना या अभिशाप
मोह था या त्याग
कैसे बता पाओगी तुम?
जीते जी अँधत्त्व का हलाहल
पी गई तुम
सुकरात न थी, जो मुक्त हो जाती
प्रवेश करो मेरी आत्मा में
प्रेत सी छा जाओ मुझपर
और 
महसूस करवाओ
प्रकाश से अँधकार में जाना कठिन है
या पत्थर को कीमती हीरा समझना।

महासती गांधारी!
तुमसी प्रवंचित मैं
गुहार लगाती हूँ
क्या तुम सुन रही हो?


  गांधारी-छह

गांधारी, ममतामयी माँ
आँख होते हुए भी अँधेपन को अभिशप्त
पहला पुत्र
दुर्योधन का जन्म
बेटे का मुख देखने को तरसती
उमड़ती दूध से भरी छातियाँ
भीग जाते होंगे तुम्हारे वस्त्र
कैसी महान माँ हो तुम
महान या अभागी
तुम्हारी पीड़ा तक पहुँच पाने का
साहस है क्या किसी मैं?
नहीं: बस तुम्हें पूजने से ही मानो
उपकृत हो जाते हैं लोग
विवश सी तुम
कोसती रही होगी अपना भाग्य।              

 गांधारी: सात

गांधारी:आज

उस दिन
अँधे पति को घुमाने ले जाती
औरत को देख
एकाएक ज़हन में उतर आई गांधारी
मन दो धाराओं में बहने लगा एक साथ
कभी पहली धारा का वेग बढ़ जाता
तो अगले ही पल
दूसरी बलवती हो उठती
अजीब सी पसोपेश थी

संस्कारों में पलता-बढ़ता पोषित मन
गांधारी की पट्टी को ही पातिव्रत्य समझता
पति अँधत्व भोगने को अभिशप्त है
नहीं देख पाता यह सतरंगी दुनिया
मैं भी क्यों देखूँ
यही धर्म है
परलोक को संवारने की सीढ़ी
परलोक?
               

जैसे प्रश्न-चिह्न सा बनकर उछला
मेरी चेतना में
किसने देखा है परलोक
उस अनजाने अनदेखे लोक को
जो न जाने है भी या नहीं?
मैं अपना यह जन्म गंवा दूँ
नहीं, कभी नहीं।
मुझे परंपरागत गांधारी नहीं बनना
दो अँधे, कौन संभालेगा
न वो महल, न दासियाँ और नाही प्रभुत्त्व
बनना है मुझे आज की गांधारी

मत घसीटो उन मृत आदर्शों को
जो कभी गढ़े और स्थापित किए गए थे
किसी दासी पुत्र द्वारा
अपने समय से और भावी युगों तक
प्रतिशोध के लिए।

पूरे महाभारत की रचना में
कहीं भी नहीं मिलता
कोई स्वस्थ जीवन-दर्शन
पुरुष सत्ता का लोलुप, अहंवादी, विलासी रूप ही

महिमा-मंडित हुआ है यहाँ, वहाँ
फिर चाहे वे भीष्म हों या दुर्योधन
सभी कौरव या कृष्ण
क्षमा करें मुझे
वह कर्मठ नारी ही
आज सत्य और सही लगती है।

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